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अपने स्वामी द्वारा ऊँचा सम्मान प्राप्त करने के लिए क्लेशकारक
फल को स्वीकार न करना चाहिए । शंकर भगवान् द्वारा शिर पर
धारण किये जाने पर भी चंद्रमा क्षीण ही बना हुआ है ॥ ८२ ॥
 
श्रुतिस्मृत्युक्तमाचारं न त्यजेत् साधुसेवितम् ।
दैत्यानां श्रीवियोगोऽभूत् सत्यधर्मच्युतात्मनाम् ॥ ८३ ॥
 
सज्जनों द्वारा सेवित श्रुतियों, स्मृतियों द्वारा बताये गये
आचरण को न छोड़े । सत्य-धर्म का परित्याग करने से ही दैत्यों को
लक्ष्मी से हाथ धोना पड़ा ॥ ८३ ॥
 
श्रियः कुर्यात् पलायिन्या बन्धाय गुणसंग्रहम् ।
दैत्यांस्त्यक्त्वा श्रिता देवा निर्गुणान्सगुणाः श्रिया ॥ ८४ ॥
 
चंचल लक्ष्मी को बाँधने के लिए गुणों का संग्रह करना चाहिए ।
गुणहीन हो जाने के कारण दैत्यों को छोड़कर लक्ष्मी गुणवान्
देवताओं के पास चली गयी ॥ ८४ ॥
 
पदाग्निं गां गुरुं देवं न चोच्छिष्टः स्पृशेद् घृतम् ।
दानवानां विनष्टा श्रीरुच्छिष्टस्पृष्टसर्पिषाम् ॥ ८५ ॥
 
अग्नि, गौ, गुरु और देवताओं को पैर से न छूना चाहिए । जूठे
हाथों से घी को भी न छूना चाहिए । जूठे हाथों से घी को छूने से
दानव श्रीहीन हो गये थे ॥ ८५ ॥
 
प्रतिलोमविवाहेषु न कुर्यादुन्नतिस्पृहाम् ।
ययातिः शुक्रकन्यायां सस्पृहो म्लेच्छतां गतः ॥ ८६ ॥
 
प्रतिलोम विवाह से उन्नति की आशा न रखनी चाहिए।
ययाति ने शुक्र की कन्या से विवाह करने से ही म्लेच्छता प्राप्त की ॥ <fix>८६ ॥</fix>