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पद्मवन्न नयेत् कोषं धूर्तभ्रमरभोज्यताम् ।
सुरैः क्रमेण नीतार्थः श्रीहीनोऽभूत् पुराम्बुधिः ॥ ७८ ॥
 
कमल की भाँति अपने कौश को धूर्त भ्रमर का भोज्य न बनाना
चाहिए । देवताओं द्वारा क्रमशः एक-एक करके धन बटोर लेन के
कारण ही महासागर श्रीहीन हो गया था ॥ ७८॥
 
नोपदेशामृतं प्राप्तं भग्नकुम्भनिभस्त्यजेत् ।
पार्थो विस्मृतगीतार्थः सासूयः कलहेऽभवत् ॥ ७९ ॥
 
महापुरुषों से प्राप्त उपदेशामृत को हृदय-घट में सुरक्षित रखना
चाहिए । फूटे हुए घड़े के समान उसे बहा न देना चाहिए । देखिये,
अर्जुन गीता का अर्थ भूल कर लड़ाई करने और गुणों में दोषों को
देखने में ही निरत हो गया था ॥ ७९ ॥
 
न पुत्रायत्तमैश्वर्यं कार्यमार्यैः कदाचन ।
पुत्रार्पितप्रभुत्वोऽभूद् धृतराष्ट्रस्तृणोपमः ॥ ८० ॥
 
विवेकी मनुष्य को चाहिए कि वह अपना ऐश्वर्य सहसा अपने
पुत्रों को न सौंप दे । घृधृतराष्ट्र अपने प्रभुत्व को पुत्रों को सौंप देने के
कारणी ही तिनका के समान बन गया था ॥ ८० ॥
 
न शत्रुशेषदूष्याणां स्कन्धे कार्यं समर्पयेत् ।
निष्प्रतापोऽभवत् कर्णः शल्यतेजोवधार्दितः ॥ ८१ ॥
 
शत्रु होते हुये विशेष रूप से दुष्टता करने वालों के कन्धे पर
किसी कार्य का माभार नहीं देना चाहिए । शल्य द्वारा तेज का हानि
करने से पीड़ित हुआ कर्ण प्रतापहीन हो गया ॥ ८१ ॥
 
न लब्धे प्रभुसंमाने फलकेक्लेशं समाश्रयेत् ।
ईश्वरेण धृतो मूर्ध्नि क्षीण एव क्षमापापतिः ॥ ८२ ॥