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न बनाये। राजा जनक राजकाज करते हुए भी उससे इस तरह
निर्लिप्त रहते थे, जैसे जल में कमल का पत्ता ॥ ७३ ॥
 
अशिष्यसेवया लाभलोभेन स्याद् गुरुर्लघुः ।
संवर्तयज्ञयाच्ञाभिर्लज्जां लेभे बृहस्पतिः ॥ ७४ ॥
 
अशिष्य की सेवा के लाभ का लोभ करने से गुरु लघु बन जाता
है । संवर्त के यज्ञ में याचना करने से ही गुरु बृहस्पति को लज्जित
होना पड़ा था ॥ ७४ ॥
 
नष्टशीलां त्यजेन्नारीं रागवृद्धिविधायिनीम् ।
चन्द्रोच्छिष्टाधिकप्रीत्यै पत्नी निन्द्याप्यभूद् गुरोः ॥ ७५ ॥
 
भोग-विलास बढ़ानेवाली दुराचारिणी स्त्री को त्याग देना चाहिए ।
चन्द्रमा द्वारा बरती गयी अपनी पत्नी पर अधिक प्रीति होने के
कारण देवगुरु बृहस्पति ने उसे जब पुनः स्वीकार कर लिया तो
उनकी बड़ी निन्दा हुई ॥ ७५ ॥
 
न गीतवाद्याभिरतिर्विलासव्यसनी भवेत् ।
वीणाविनोदव्यसनी वत्सेशः शत्रुणा हृतः ॥ ७६ ॥
 
गाने बजाने में आसक्त और विलास व्यसन में सदैव मग्न न
रहना चाहिए । वीणा विनोद का अत्यधिक व्यसन रखने के कारण
वत्सराज उदयन शत्रु द्वारा छले गये ॥ ७६ ॥
 
उद्वेजयेन्न तैक्ष्ण्येन रामाः कुसुमकोमलाः ।
सूर्यो भार्याभयोच्छिन्त्त्यै तेजो निजमशातयत् ॥ ७७ ॥
 
कुसुम के समान सुकोमल स्त्रियों को अपनी तीक्ष्णता से कभी
उद्विग्न न करना चाहिए । अपनी पत्नी का भय दूर करने के लिए
सूर्य को अपना तेज कम करना पड़ा था ॥ ७७ ॥