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महापुरुष, राजा महाराजा इसी त्रिवर्ग की उचित नियमित साधना
करने वाले थे ॥ ६६ ॥
 
स्वकुलान्न्यूनतां नेच्छेत् तुल्यः स्यादथवाधिकः ।
सोत्कर्षेऽपि रघोर्वंशे रामोऽभूत् स्वकुलाधिकः ॥ ७० ॥
 
अपने वंश से कम होने की इच्छा कभी न करनी चाहिए । उसके
बराबर या उससे अधिक होने का प्रयत्न करते रहना चाहिए ।
रघुवंश का उत्कर्ष होने पर भी श्रीराम उस कुल से भी अधिक
उन्नतिशील हो गये ॥ ७० ॥
 
कुर्यात्तीर्थाम्बुभिः पूतमात्मानं सततोज्ज्वलम् ।
लोमशादिष्टतीर्थेभ्यः प्रापुः पार्थाः कृतार्थताम् ॥ ७१ ॥
 
तीर्थों में स्नान करके सदा अपने को पवित्र और निर्मल बनाना
चाहिए । लोमश द्वारा बताए गए पवित्र तीर्थों में स्नान करने से ही
पाण्डव कृतार्थ हुए थे ॥ ७१ ॥
 
आपत्कालोपयुक्तासु कलासु स्यात् कृतश्रमः ।
नृत्तवृत्तिर्विराटस्य किरीटी भवनेऽभवत् ॥ ७२ ॥
 
आपत्ति के समय मदद देने वाली कलाओं की भी जानकारी
रखनी चाहिए। पता नहीं कौन कला किस समय काम दे जाय ।
अर्जुन जैसे महान् योद्धा और विद्वान् ने आपत्ति के समय राजा
विराट के यहाँ नृत्यकला सिखाने की जीविका प्राप्त की थी ॥ ७२ ॥
 
अरागभोगसुभगः स्यात् प्रसक्तविरक्तधीः ।
राज्ये जनकराजोऽभून्निर्लेपोऽम्भसि पद्मवत् ॥ ७३ ॥
 
मनुष्य को चाहिए कि अपनी बुद्धि को भोग-विलास में आसक्त