2025-12-07 04:11:28 by akprasad
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<verse lang="sa">न सतीनां तपोदीप्तं कोपयेत् क्रोधपावकम् ।
वधाय दशकण्ठस्य वेदवत्यत्यजत्तनुम् ॥ ६६ ॥
</verse>
<p lang="hi">सतियों की तपस्या से प्रज्वलित क्रोधाग्नि को कुपित न करना
चाहिए । रावण के वध के लिए वेदवती ने अपना शरीर छोड़ (कर
सीता के रूप में जन्म लिया और अन्त में उसे समूल नष्ट कर) दिया ॥
</p>
<verse lang="sa">गुरुमाराधयेद् भक्त्या विद्याविनयसाधनम् ।
रामाय प्रददौ तुष्टो विश्वामित्रोऽस्त्रमण्डलम् ॥ ६७ ॥
</verse>
<p lang="hi">विद्या और विनय के साधन गुरु की आराधना श्रद्धा और भक्ति
से करनी चाहिए । राम की भक्ति से प्रसन्न होकर गुरु विश्वामित्र जी
ने उन्हें बड़े-बड़े अमोघ अस्त्र-शस्त्र प्रदान किये थे ॥ ६७ ॥
</p>
<verse lang="sa">वसु देयं स्वयं दद्याद् बलाद् यद् दापयेत् परः ।
द्रुपदोऽपह्नवी राज्यं द्रोणेनाक्रम्य दापितः ॥ ६८ ॥
</verse>
<p lang="hi">किसी को कुछ देने का वायदा करने पर अथवा जिसे नियत
समय पर दान दिया जाता हो उसे बिना माँगे ही खुद दे देना
चाहिये । न तो उसे माँगना पड़े और न किसी के दबाव डालने पर
ही दिया जाय । ऐसा न करने से बदनामी होती है । राजा द्रुपद ने
गुरु द्रोणाचार्य को राज्य मिलने पर उसका कुछ हिस्सा दे देने का
वायदा किया था, किन्तु राज्य मिलने पर उसने उन्हें नहीं दिया तो
द्रोणाचार्य ने अर्जुन के द्वारा उस पर आक्रमण कराकर उससे अपना
हिस्सा ले लिया था ॥ ६८ ॥
</p>
<verse lang="sa">साधयेद्धर्मकामार्थान् परस्परमबाधकान् ।
त्रिवर्गसाधना भूपा बभूवुः सगरादयः ॥ ६९ ॥
</verse>
<p lang="hi">धर्म, अर्थ और काम की साधना इतनी मात्रा में करनी चाहिए
कि वे एक दूसरे के बाधक न बन<<error>>जायँ<</error><><fix>>जाय<</fix>> । सगर आदि प्राचीन</p>
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<verse lang="sa">न सतीनां तपोदीप्तं कोपयेत् क्रोधपावकम् ।
वधाय दशकण्ठस्य वेदवत्यत्यजत्तनुम् ॥ ६६ ॥
<p lang="hi">सतियों की तपस्या से प्रज्वलित क्रोधाग्नि को कुपित न करना
चाहिए । रावण के वध के लिए वेदवती ने अपना शरीर छोड़ (कर
सीता के रूप में जन्म लिया और अन्त में उसे समूल नष्ट कर) दिया ॥
<verse lang="sa">गुरुमाराधयेद् भक्त्या विद्याविनयसाधनम् ।
रामाय प्रददौ तुष्टो विश्वामित्रोऽस्त्रमण्डलम् ॥ ६७ ॥
<p lang="hi">विद्या और विनय के साधन गुरु की आराधना श्रद्धा और भक्ति
से करनी चाहिए । राम की भक्ति से प्रसन्न होकर गुरु विश्वामित्र जी
ने उन्हें बड़े-बड़े अमोघ अस्त्र-शस्त्र प्रदान किये थे ॥ ६७ ॥
<verse lang="sa">वसु देयं स्वयं दद्याद् बलाद् यद् दापयेत् परः ।
द्रुपदोऽपह्नवी राज्यं द्रोणेनाक्रम्य दापितः ॥ ६८ ॥
<p lang="hi">किसी को कुछ देने का वायदा करने पर अथवा जिसे नियत
समय पर दान दिया जाता हो उसे बिना माँगे ही खुद दे देना
चाहिये । न तो उसे माँगना पड़े और न किसी के दबाव डालने पर
ही दिया जाय । ऐसा न करने से बदनामी होती है । राजा द्रुपद ने
गुरु द्रोणाचार्य को राज्य मिलने पर उसका कुछ हिस्सा दे देने का
वायदा किया था, किन्तु राज्य मिलने पर उसने उन्हें नहीं दिया तो
द्रोणाचार्य ने अर्जुन के द्वारा उस पर आक्रमण कराकर उससे अपना
हिस्सा ले लिया था ॥ ६८ ॥
<verse lang="sa">साधयेद्धर्मकामार्थान् परस्परमबाधकान् ।
त्रिवर्गसाधना भूपा बभूवुः सगरादयः ॥ ६९ ॥
<p lang="hi">धर्म, अर्थ और काम की साधना इतनी मात्रा में करनी चाहिए
कि वे एक दूसरे के बाधक न बन
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