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अत्युन्नतपदारूढः पूज्यानैवावमानयेत् ।
नहुषः शक्रतामेत्य च्युतोऽगस्त्याक्रमाननात् ॥ ५७ ॥

ऊँचे पद पर पहुँचकर बड़ों का अपमान न करना चाहिए ।
नहुष मे इन्द्र होकर अगस्त्य मुनि का अपमान किया जिससे उसका
पतन हो गया ॥ ५७ ॥
 
सन्धि विधाय रिषुपुणा न निःशङ्कः सुखी भवेत् ।
सन्धि कृत्वावधीदिन्द्रो वृत्रं निःशङ्कमानसम् ॥ ५८ ॥

शत्रु से सन्धि हो जाने पर भी निःशंक होकर न बैठना चाहिए।
सन्धि कर लेने पर जब वृत्रासुर निश्चिन्त हो गया तब इन्द्र ने उसे
मार डाला ॥ ५८ ॥
 
हितोपदेशं श्रुत्वा तु कुर्वीत च यथोचितम् ।
विदुरोक्तमकृत्वा तु शोच्योऽभूत् कौरवेश्वरः ॥ ५९ ॥

हितकर उपदेशों को सुनकर उनका यथोचित पालन करे । विदुर
की सलाह न मानने से दुर्योधन का विनाश हुआ ॥ ५९ ॥
 
बह्वन्नाशनलोभेन रोगी मन्दरुचिर्भवेत् ।
प्रभूताज्यभुजो जाड्यं दहनस्याप्यजायत ॥ ६० ॥

अधिक भोजन करने से रोगी की अग्नि मंद पड़ जाती है । उसे
भोजन से अरुचि हो जाती है। घी का अधिक भोजन कर लेने से
अग्नि को भी अजीर्ण हो गया था ॥ ६० ॥
 
यत्नेन शोषयेद्दोपात्रषान्न तु तीव्रव्रतैस्तनुम् ।
तपसा कुम्भकर्णोऽभून्नित्यनिद्राविचेतनः ॥ ६१ ॥

प्रयत्न करके अपने अन्दर की बुराइयों को दूर करने की कोशिश