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वर्जयेदिन्द्रियजयी विजने जननीमपि ।
पुत्रीकृतोऽपि प्रद्युम्नः कामितः शम्बरस्त्रिया ॥ ५२ ॥
 
एकान्त में यदि माता भी हो तो मनुष्य को चाहिए कि वह
अपनी इन्द्रियों को काबू में रखे । शम्बर असुर की स्त्री अपने पुत्र
तुल्य दामाद प्रद्युम्न पर भी कामासक्त हो गयी थी ॥ ५२ ॥
 
न तीव्रतपसां कुर्याद् धैर्यविप्लवचापलम् ।
नेत्राग्निशलभीभावं भवोऽनैषीन्मनोभवम् ॥ ५३ ॥
 
योगियों, तपस्वियों के धैर्य को डिगाने की चंचलता न करनी
चाहिये । ऐसा करने से ही कामदेव भगवान् शिव की नेत्राग्नि से भस्म
हो गया ॥ ५३ ॥
 
न नित्यकलहाक्रान्ते सक्तिं कुर्वीत कैतवे ।
अन्यथाकृद्विपन्नोऽभूद्धर्मराजो युधिष्ठिरः ॥ ५४ ॥
 
नित्य कलह से भरे हुए जुए पर आसक्ति नहीं रखनी चाहिए ।
इस बात को न मान कर ही युधिष्ठिर अपना सर्वस्व जुए में हार गए थे ।
 
प्रभुप्रसादे सत्याशां न कुर्यात् स्वप्नसंनिभे ।
नन्देन मन्त्री निहितः शकटालो हि बन्धने ॥ ५५ ॥
 
राजा की प्रसन्नता पर तनिक भी विश्वास न करना चाहिए ।
राजा नन्द ने अपने मंत्री शकटार को कैदखाने में डाल दिया था ॥ ५५ ॥
 
न लोकायतवादेन नास्तिकत्वेऽर्पयेद् धियम् ।
हरिर्हिरण्यकशिपुं जघान स्तम्भनिर्गतः ॥ ५६ ॥
 
लोकायतवाद से प्रभावित होकर नास्तिक हो जाना ठीक नहीं ।
हिरण्यकशिपु को मारने के लिए भगवान् खम्भा फाड़कर प्रकट
हुए थे ॥ ५६ ॥