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विद्योद्योगी गतोद्वेगः सेवया तोषयेद् गुरुम् ।
गुरुसेवापरः सेहे कायक्लेशदशां कचः ॥ ४३ ॥

विद्यार्थी को चाहिए कि वह उद्वेग रहित होकर अपनी सेवा से
गुरु को प्रसन्न करे । गुरु-सेवा में तत्पर होकर ही कच ने महान्
शारीरिक क्लेश सहन किया था ॥ ४३ ॥
 
स्वामिसेवारतं भक्तं निर्दोषं न परित्यजेत् ।
रामस्त्यक्त्वा सतीं सीतां शोकशल्यातुरोऽभवत् ॥ ४४ ॥

स्वामी की सेवा में लीन निर्दोष भक्त (सेवक) का बहिष्कार न
करना चाहिये। सती (निर्दोष) सीता को छोड़कर राम बहुत
शोकातुर हुये थे ॥ ४४ ॥
 
रक्षेत् ख्यातिं पुनःस्मृत्या यशःकायस्य जीवनीम् ।
च्युतः स्मृतो जनैः स्वर्गमिन्द्रद्युम्नः पुनर्गतः ॥ ४५ ॥

मनुष्य को मृत्यु के बाद पुनः स्मरण की जाने पर यश रूपी
शरीर को जीवित रखने वाली प्रसिद्धि की रक्षा करनी चाहिए। राजा
इन्द्रद्युम्न मरने के बाद स्वर्ग गया। पुण्य क्षीण हो जाने के बाद जब
वह फिर मृत्युलोक में आया तो एक दीर्घजीवी <error>कछुये</error><fix>कछुवे</fix> ने उसके यश
का पुनः विस्तार किया, जिससे वह फिर स्वर्ग का हिस्सेदार बना ॥ ४५ ॥
 
न कदर्यतया रक्षेल्लक्ष्मीं क्षिप्रपलायिनीम् ।
युक्त्या व्याडीन्द्रदत्ताभ्यां हृता श्रीर्नन्दभूभृतः ॥४६॥

शीघ्र ही भाग जानेवाली राजलक्ष्मी की रक्षा कायरता से न
करनी चाहिये । प्रसिद्ध है कि राजा नन्द की राजलक्ष्मी व्याडि और
इन्द्रदत्त ने युक्ति से हरण कर ली थी ॥ ४६ ॥
 
शक्तिक्षये क्षमां कुर्यान्नाशक्तः शक्तमाक्षिपेत् ।
कार्तवीर्यः ससंरम्भं बबन्ध दशकन्धरम् ॥ ४७ ॥