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बुद्धिमान् को चाहिए कि वह कभी भी क्रोध रूपी राक्षस के
वशीभूत न हो। क्रोध के वशीभूत होने के कारण ही भीम ने राक्षस
की भाँति दुःशासन की छाती का खून पिया था ॥ ३८ ॥
 
त्यजेद् मृगव्यव्यसनं हिंसयातिमलीमसम् ।
मृगयारसिकः पाण्ड: शापेन तनुमत्यजत् ॥ ३९ ॥
 
हिंसा रूपी घोर मलिनता से युक्त शिकार का व्यसन छोड़ देना
चाहिए । शिकार में आसक्त होने के कारण ही पाण्डु ने शापवश
शरीर छोड़ा था ॥ २६ ॥
 
शिवेनेव न तुष्टेन बुद्धिर्देया विनाशिनी ।
भस्मासुराय वरदः स हि तेन विडम्बितः ॥ ४० ॥
 
शंकर भगवान् की भाँति प्रसन्न होकर अपने ही विनाश की
बुद्धि न देनी चाहिए । भस्मासुर को वरदान देकर शिव जी ने अपने
ही विनाश का उपाय रचा ॥ ४० ॥
 
न जातूल्लङ्घनं कुर्यात् सतां मर्मविदारणम् ।
चिच्छेद वदनं शम्भुर्ब्रह्मणो वेदवादिनः ॥ ४१ ॥
 
कभी भी सज्जन पुरुषों की बात का ऐसा उल्लंघन करना चाहिए
जिससे उनके हृदय में चोट पहुँचे। ऐसे ही अपराध पर शंकर जी ने
वेदवादी ब्रह्मा के चारों मुखों को कतर दिया था ॥ ४१ ॥
 
गुणेष्वेवादरं कुर्यान्न जातौ जातु तत्ववित् ।
द्रौणिर्द्विजोऽभवच्छूद्रः शूद्रश्च विदुरः क्षमी ॥ ४२ ॥
 
तत्त्ववेत्ता पुरुष को चाहिए कि वह जाति की अपेक्षा गुणों का
आदर करे | द्रोण का पुत्र जाति से ब्राह्मण होते हुए भी कर्म से शूद्र
था और जन्म से शुद्र होते हुए भी विदुर क्षमाशील ब्राह्मण था ॥४२॥