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नात्यर्थमर्थार्थनया धीमानुद्वेजयेज्जनम् ।
अब्धिर्दत्ताश्वरत्नश्रीर्मथ्यमानोऽसृजद् विषम् ॥ ३४ ॥
 
बुद्धिमान् पुरुष को बार-बार धन की याचना करके किसी को
उद्विग्न न करना चाहिए । अश्व, रत्न और लक्ष्मी देने पर भी जब
समुद्र मथा गया तो वह विष उगलने लगा ॥ ३४ ॥
 
वक्रैः क्रूरतरैर्लुब्धैर्न कुर्यात् प्रीतिसंगतिम् ।
वसिष्ठस्याहरद् धेनुं विश्वामित्रो निमन्त्रितः ॥ ३५ ॥
 
कुटिल, निष्ठुर और लोभी मनुष्यों के साथ प्रेम-संबन्ध न रखना
चाहिए। निमन्त्रण पाकर वशिष्ठ के यहाँ पहुँचे हुए विश्वामित्र ने
उनकी धेनु का ही अपहरण कर लिया ॥ ३५ ॥
 
तीव्रे तपसि लीनानामिन्द्रियाणां न विश्वसेत् ।
विश्वामित्रोऽपि सोत्कण्ठः कण्ठे जग्राह मेनकाम् ॥ ३६ ॥
 
कठोर तपस्या में लीन व्यक्तियों की भी इन्द्रियों पर विश्वास न
करना चाहिए। (महातपस्वी होते हुए भी) विश्वामित्र ने उत्सुक
हो कर मेनका अप्सरा को गले लगा लिया था ॥ ३६ ॥
 
कुर्याद्वियोगदुःखेषु धैर्यमुत्सृज्य दीनताम् ।
अश्वत्थामवधं श्रुत्वा द्रोणो गतधृतिर्हतः ॥ ३७ ॥
 
किसी प्रकार के वियोग से उत्पन्न दुःख में दीनता छोड़कर धैर्य
धारण करना चाहिए। अश्वत्थामा का वध सुनते ही धैर्य छोड़ देने
के कारण ही द्रोणाचार्य को मरना पड़ा ॥ ३७ ॥
 
न क्रोधयातुधानस्य धीमान् गच्छेदधीनताम् ।
पपौ राक्षसवद् भीमः क्षतजं रिपुवक्षसः ॥ ३८ ॥