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दम्भारम्भोद्धतं धर्मं नाचरेदन्तनिष्फलम् ।
ब्राह्मण्यदम्भलब्धास्त्रविद्या कर्णस्य निष्फला ॥ २१ ॥
 
दम्भपूर्वक उद्धत हो कर धर्म का आचरण नहीं करना चाहिए
क्योंकि इस प्रकार से किया गया धर्म अन्त में निष्फल ही होता है।
कर्ण ने ब्राह्मण का छद्मवेष धारण कर परशुराम से अस्त्रविद्या सीखी ।
उनसे उसने ब्रह्मास्त्र प्राप्त किया, लेकिन कपट का भण्डाफोड़ हो
जाने पर उसे वर के स्थान पर यह शाप मिला कि तुम्हारा ब्रह्मास्त्र
निष्फल होगा ॥ २१ ॥
 
नासेव्यसेवया दध्याद् दैवाधीने धने धियम् ।
भीष्मद्रोणादयो याताः क्षयं दुर्योधनाश्रयात् ॥ २२ ॥
 
जो सेवा करने के योग्य न हो उसकी सेवा धन का लोभ रख
कर न करनी चाहिए । दुर्योधन जैसे दुष्ट व्यक्ति की सेवा करने से ही
भीष्म-द्रोण जैसे महापुरुषों, महासेनापतियों का नाश हुआ ॥ २२ ॥
 
परप्राणपरित्राणपरः कारुण्यवान् भवेत् ।
मांसं कपोतरक्षायै स्वं श्येनाय ददौ शिबिः ॥ २३ ॥
 
दूसरों की प्राण-रक्षा के लिए तत्पर तथा दयावान् अवश्य होना
चाहिए । शिविबि ने कपोत (कबूतर) की रक्षा के लिए श्येन पक्षी
(बाज) को अपना शरीर ही दे डाला ॥ २३ ॥
 
अद्वेषपेशलं कुर्यान्मनः कुसुमकोमलम् ।
बभूव द्वेषदोषेण देवदानवसंक्षयः ॥ २४ ॥
 
द्वेष को अपने मन से हटाकर मन को फूल से भी अधिक कोमल
और सुन्दर बनाना चाहिए । देवासुर संग्राम में देवताओं और दानवों
का संहार द्वेष के कारण ही हुआ ॥ २४ ॥