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विषं स्त्रियोऽप्यन्यहृदः
 

 
वृक्षं क्षीणफलं त्यजन्ति
 

 
वृद्ध: प्रसिद्धो विबुधः

वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञः

वेदार्थचक्षुषा विप्राः
 

 
वैद्यं पानरतं नटं
 

 
वैरिणा सह विश्वास
 

 
व्यसने योजयेच्छत्रुम्
 

 
व्यसने सति कुर्वीत
 

 
व्याधिशेषोऽग्निशषश्च

व्रजेद् धनार्थी वाणिज्यं
 

 
शत्रोरपत्यानि वशं

शत्रोरपि गुणा वाच्याः

शत्रोश्च मित्रत्वमुपागतस्य

शास्त्रं सुचिन्तितम पि
 

 
शास्त्रार्थ चक्षुषा विद्वान्

शास्त्रे नृपे च युवतौ

शास्त्रे बोद्धा रणे योद्धा
 

 
शीतभीताश्च ये विप्राः
 

 
शुचि: क्षेमकरो राजा

शुचि भूमिगतं तोयं
 

 
शुचिश्च व्यवसायी च

शूरं कापुरुषं विभुं

शूर: श्रुतिज्ञः कवयः
 

 
शौर्य शत्रुजने क्षमा

शौर्यवीर्यगुणोपेतः
 

 
षण्मासमथवा वर्ष
 

 
स एव वक्ता से च दर्शनीय:
 

 
CĀŅAKYA-RĀJA-NĪTI
 

 
श्लोकसंख्या
 

 
८५
 

 
१८१
 

 
५६
 

 
२२९
 

 
२५१
 

 
संगति: श्रेयसो मूलं
 

 
संग्रामकाले सीदन्ति
 

 
संतुष्टश्चरते नित्यं
 

 
संवादे विग्रहे क्षिप्रं
 

 
सकृजल्पन्ति राजानः
 

 
सकृत् कन्या: प्रदीयन्ते

सकृदुक्तगृहीतार्थः

स गृह्णाति विषोन्मादं

स जेष्यति रिपून् सर्वान्

सत्यं मनोरमा: कामा:

१६७ सत्यशौचसमायुक्त:
 

 
१४७
 

 
१२५
 

 
१९२
 
१२१
 

 
१२१
 
सद्भिरासीत सततं

सद्भिर्विवाद मैत्रीं च
 

 
१२८
 

 
१२० सद्भूपतिः खलु यथैव

स नश्यति पुनः क्षिप्रम्

सन्धौ विरोधे दाने च
 
१२२
 

 
१२२
 
२७०
 

 
२५१
 

 
स पण्डितः स श्रुतवान्
 

 
२७०
 

 
१०
 

 
१६५
 

 
३७
 

 
समस्तकृतशास्त्रज्ञः
 

 
समस्तहयशास्त्रज्ञः
 

 
समाने शोभते प्रीतिः
 

 
समुद्रावरणा भूमिः
 

 
समूलकाषं कषितुम्
 

 
29
 

 
२२० सम्यग् विद्योपदेशी च
 

 
स राजा हि भवेद् योगी
 

 
सर्पे क्षान्तिः स्त्रीषु कामोप
 

 
१९२
 

 
५६
 

 
१६२ सर्पो दशति कालेन
 

 
२२३
 

 
१४६
 

 
५०
 

 
सर्वं नवं प्रशंसीयात्
 

 
सर्व: कार्यवशाजनः
 

 
सर्वथा तु सदा शत्रुः

सर्वशास्त्रसमालोकी
 

 
"2
 

 
श्लोकसंख्या
 

 
११९
 

 
१७
 

 
९७
 

 
२३८
 

 
"
 

 
२२६
 

 
३१
 

 
१८
 

 
४६.
 

 
२३४.
 

 
८८.
 

 
२३९
 

 
४८
 

 
५०
 
२२२
 

 
२२२
 
२२३
 

 
१६८
 

 
३४
 

 
२४८
 

 
२३०
 

 
२६२
 

 
२०२
 

 
१७९
 

 
१८१
 

 
१३४..
 

 
२२६
 

 
२२७