2023-02-27 22:42:35 by ambuda-bot
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भल्लटशतकम्
मुस्कुराहट के अनुरूप प्रयास तथा प्रयासों के अनुरूप अर्थसिद्धि होती है । यहाँ
एकावली तथा अप्रस्तुतप्रशंसा का एकवचनानुप्रवेश सङ्कर है।
३४
O mother! where have gone those trees whose flowers were
congruous with their leaves, fruits with their flowers and their
heights with their fruits ?
साध्वेव तद्विधावस्य वेधा क्लिष्टो न यथा' ।
स्वरूपाननुरूपेण चन्दनस्य फलेन किम् ॥३०॥
साधु एव, यत् अस्य तद्विधौ वेधा वृथा न क्लिष्ट: (यतः)
स्वरूपाननुरूपेण फलेन चन्दनस्य किम् ?
असत्कार्यस्य करणात्तस्याकरणमेव वरमित्याह- साध्वेवेति । वेधा ब्रह्मा ।
• चन्दनतरोस्तद्विवौ तस्य फलस्य विधौ निर्मारणविषये वृथा व्यर्थमेव न क्लिष्टो न
श्रान्तः इति यावत् । तत्साधु समीचीनमेव । अयमर्थः – फलेन तरोरप्यधिक
सौगन्ध्यादिगुणवता भाव्यम् । तादृशत्वसम्पादनेन तन्निर्मारणे मे श्रममेव
सेत्स्यतीति वेधसो भाव इति तदेवोपपादयति – चन्दनस्य स्वरूपाननुरूपेर
अनुगुणेन फलेन किम् ? न किमपीत्यर्थ: । कस्यचित् सुजनस्य दुष्पुत्रलाभात्
तदभाव एव श्रेयानिति न च युज्यते। तो
भवति । असत्स्वीकारः सत्परित्यागश्च न श्रेयोहेतुरिति भावः ।
कष्ट को
यह अच्छा ही हुआ जो इसके उस (फल) के बनाने में विधाता ने व्यर्थ
क्या लाभ था ? अर्थात् कुछ लाभ न था ।
अनुरूपता हेतु है अतः यहाँ काव्यलिङ्ग है । अप्रस्तुत वाच्य चन्दनवृत्त
यहाँ चन्दन में फलों के निर्मारणाभाव में फलों और चन्दन के स्वरूप की
से प्रस्तुत व्यङ्ग्य महामहिमशाली, यशस्वी एव निस्सन्तान व्यक्ति के वृत्तान्त
पुत्र नहीं बन सकता यह प्रतिशयोक्ति है। यहां इन तीनों अलङ्कारों का एक
की अभिव्यक्ति होने से अप्रस्तुतप्रशंसा है । उस महान् पुरुष तक ऊँचा उसका
वचनानुप्रवेश सङ्कर है ।
It was proper that while creating sandal tree the Creator did
1. अ, म', ह; यद् व्यधात् क
CC-0 Shashi Shekhar Toshkhani Collection. Digitized by eGangotri
मुस्कुराहट के अनुरूप प्रयास तथा प्रयासों के अनुरूप अर्थसिद्धि होती है । यहाँ
एकावली तथा अप्रस्तुतप्रशंसा का एकवचनानुप्रवेश सङ्कर है।
३४
O mother! where have gone those trees whose flowers were
congruous with their leaves, fruits with their flowers and their
heights with their fruits ?
साध्वेव तद्विधावस्य वेधा क्लिष्टो न यथा' ।
स्वरूपाननुरूपेण चन्दनस्य फलेन किम् ॥३०॥
साधु एव, यत् अस्य तद्विधौ वेधा वृथा न क्लिष्ट: (यतः)
स्वरूपाननुरूपेण फलेन चन्दनस्य किम् ?
असत्कार्यस्य करणात्तस्याकरणमेव वरमित्याह- साध्वेवेति । वेधा ब्रह्मा ।
• चन्दनतरोस्तद्विवौ तस्य फलस्य विधौ निर्मारणविषये वृथा व्यर्थमेव न क्लिष्टो न
श्रान्तः इति यावत् । तत्साधु समीचीनमेव । अयमर्थः – फलेन तरोरप्यधिक
सौगन्ध्यादिगुणवता भाव्यम् । तादृशत्वसम्पादनेन तन्निर्मारणे मे श्रममेव
सेत्स्यतीति वेधसो भाव इति तदेवोपपादयति – चन्दनस्य स्वरूपाननुरूपेर
अनुगुणेन फलेन किम् ? न किमपीत्यर्थ: । कस्यचित् सुजनस्य दुष्पुत्रलाभात्
तदभाव एव श्रेयानिति न च युज्यते। तो
भवति । असत्स्वीकारः सत्परित्यागश्च न श्रेयोहेतुरिति भावः ।
कष्ट को
यह अच्छा ही हुआ जो इसके उस (फल) के बनाने में विधाता ने व्यर्थ
क्या लाभ था ? अर्थात् कुछ लाभ न था ।
अनुरूपता हेतु है अतः यहाँ काव्यलिङ्ग है । अप्रस्तुत वाच्य चन्दनवृत्त
यहाँ चन्दन में फलों के निर्मारणाभाव में फलों और चन्दन के स्वरूप की
से प्रस्तुत व्यङ्ग्य महामहिमशाली, यशस्वी एव निस्सन्तान व्यक्ति के वृत्तान्त
पुत्र नहीं बन सकता यह प्रतिशयोक्ति है। यहां इन तीनों अलङ्कारों का एक
की अभिव्यक्ति होने से अप्रस्तुतप्रशंसा है । उस महान् पुरुष तक ऊँचा उसका
वचनानुप्रवेश सङ्कर है ।
It was proper that while creating sandal tree the Creator did
1. अ, म', ह; यद् व्यधात् क
CC-0 Shashi Shekhar Toshkhani Collection. Digitized by eGangotri