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भल्लटशतकम्
 
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तृतीय पंक्ति में 'हि' अव्यय का ग्रहण करने से यह अर्थ निन्दापरक हो
जाता है किन्तु 'हि' के स्थान पर 'न' पाठ स्वीकार करने से अन्वय इस प्रकार
हो जायेगा – किन्तु उच्चरति एव । अस्य स शब्दः यः श्राव्यो न ( भवति) यः
(च) सदर्थशंसी न (भवति एतादृशः) न (विद्यते ) । इस प्रकार के अर्थ में
ऐसे व्यक्ति की ओर संकेत है जो दुर्बल होने पर भी दूसरे का सहारा पाकर
बढ़िया बात कहता है यह अर्थ स्तुतिपरक हो जाता है ।
 
यहाँ प्रस्तुत वाच्य शङ्खवृत्तान्त से प्रस्तुत व्यङ्ग्य अज्ञ अथवा सुविज्ञ
व्यक्ति के वृत्तान्त की प्रतीति होने से अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार है ।
 
The conch is a mere skeleton, is broken in the mid, or is
dead. Actually, it blows through other's breathing. It goes on
emitting sound which is not worthy of listening and does not
convey good sense.
 
यथापल्लवपुष्पास्ते'
 
यथापुष्पफलर्द्धयः ।
 
यथाफलद्धिस्वारोहा हा मातः क्वागमन्द्रुमाः ॥२६॥
 
हा मातः ! यथापल्लवपुष्पाः, यथापुष्पफलर्द्धयः, यथाफलद्धस्वारोहा
ते द्रुमाः क्व ग्रगमन् ?
 
यथा पल्लवेति । यथा पल्लवपुष्पा: पल्लवा आरोहाः । सुखेन आरोहः
स्वारोहः सुगमत्वं येषां ते तथोक्ता महान्तः समुच्छ्रिता द्रुमास्तरवः क्वागमन्
क्व गताः। अयमर्थः—अनुरागानुगुणस्मिताः स्मितानुगुणपरप्रयोजनाः प्रयो-
जनानुगुणप्राप्यार्थगतयो महान्तो लोकेऽत्यन्त दुर्लभा इति ।
 
हे माता ! वे वृक्ष कहाँ चले गये जिनके फूल उनके नये पत्तों के अनुरूप
होते थे, जिनकी फलसमृद्धि उनके फूलों के अनुरूप होती थी और जिनकी सुन्दर
सुगम्य उठान उनके फलों की समृद्धि के अनुरूप होती थी ?
 
यहाँ पूर्व पूर्व वाक्य उत्तर उत्तर वाक्य का विशेषण है अतः एकावली
अलङ्कार है ।
 
यहाँ अप्रस्तुत वाच्य द्रुमों के वर्णन से प्रस्तुत व्यङ्ग्य ( के सद्व्यवहार )
सज्जनों की प्रतीति हो रही है। इन सज्जनों की प्रेम के अनुरूप मुस्कुराहट,
 
1. क, म, ह; पुष्पाढघा अ
 
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