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भल्लटशतकम्
 
२७
 
(हे) करभ ! रभसात् क्रोष्टुं वाञ्छसि । अहो श्रवरणज्वरः । अथवा
तवैव अनुज्वी दीर्घा शिरोधरा ( मम) शरणम् । पृथुगलविलावृत्तिश्रान्ता
वाक् चिरात् उच्चरिष्यति । इयति समये कस्य कि भविष्यति (इति)
क: जानीते ?
 
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दुर्जनः श्रवरणपरुषैःशब्द राक्रोशंरधश्चिकीषति । तेन सह वामिश्र रणमपि
विधातुमपारयन् विदग्धः - स तु कालक्रमेण स्वयमेव स्वप्रतिबन्धोपायः - इति
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विचिन्त्य प्रतिपन्नसाहस : ( भवति ) 2 इत्याह – करभ इति । करभः क्रमेलकः ।
रभसात् सर्वप्रारणेनापि क्रोष्टुं गजितु वाञ्छसि कि करोमि । अहो श्रवरणज्वरो
कर्णयोर्व्यसनमुपनतम् । अथवा अस्मिन् समये किञ्चिच्छरणमस्ति । तवैवानृज्वी
वका दीर्घा शिरोधरा ग्रीवा व्यसनप्राप्तस्य मे शरणं नान्यत् । बहुगलविलावृत्ति-
श्रान्ता निरायतकण्ठरन्ध्रनिर्गमच्छिन्नस्वरूपा तव वाङ् मुखाद् वागुच्चरिष्यति ।
तस्मादित्येतावन्मात्रे समये अवसरे कस्य कि भविष्यतीत्यावयोः कतरस्य कि
व्यसनं भविष्यतीति को जानीते न कश्चिदपि वेत्ति । सर्वथापि न चिरं जीवितम् ।
रभसात् क्रोशं कुर्वतस्ते जिह्वारोगेरण कदाचिदापद् भविष्यति । तस्मात् त्वया सह
न वामिश्रणं ममोचितम् । तूष्णीमेव स्थातव्यमिति ।
 
ऊँट ! तुम पूर्ण शक्ति से चिल्लाना चाहते हो । यो हो ! ( तुम्हारा
यह 'चिल्लाना तो साक्षात् ) कर्णज्वर (कानों को फोड़ने वाला व
कानों के लिए अत्यन्त कष्टप्रद ) होगा। या फिर (ब) तुम्हारी ही टेढ़ी और
लम्बी गर्दन (मेरा) सहारा है। बड़े गले के छेद में से बारबार निकलने
से थकी हुई तुम्हारी वाणी बहुत देर में निकलेगी। इतने समय में किसका क्या
हो जाय ( इस बात को ) कौन जानता है १
 
• यहाँ क्रूर शासक द्वारा प्रताडित निरपराध व्यक्ति की मानसिक स्थिति
का वर्णन है। अपने लिए दण्ड का आदेश पाकर यह निर्दोष व्यक्ति सोचता
है कि जब तक इस भ्रष्ट राजा की आज्ञा भ्रष्ट अधिकारियों के द्वारा लागू की
जायेगी तब तक परिस्थिति बदल जायेगी और बुरे कारनामों के कारण
इसका तख्ता ही पलट जायेगा और मेरा बचाव हो जायेगा । इसलिए शान्त-
चित्त होकर समय की प्रतीक्षा कर लेनी चाहिए ।
 
यहाँ प्रस्तुत वाच्य करभवृत्तान्त से प्रस्तुत व्यङ्ग्य दुष्ट शासक
वृत्तान्त की प्रतीति होने से सादृश्यमूलक अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार है । करभ
की चिल्लाहट को कर्णज्वर बताकर तथा लम्वायमान ग्रीवा की सत्ता
 
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