2023-02-27 22:42:31 by ambuda-bot
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भल्लटशतकम्
फलम् ? हे भ्रमर षट्पद ! कि त्वं निश्चितवानसि त्वं भ्रमरशीलत्वादन्यत्रापि
जीवितुं शक्तस्तथापि एवंविधः सेव्य इति किमित्थं निश्चितवानसि ? किमर्थमिति
योज्यम् । व्यर्थमिति वा पाठः । असो वारणोऽपि निवारणोऽपि अन्तश्शून्य-
करोऽपि अन्तःसुषिरकरोऽपि अर्थशून्यकरोऽपि वा न किञ्चिदपि दातुं यस्य
शक्तिरेवंविधकरोऽपि असौ वारणो गजो निषेव्यत इति यत् तस्मात् । भ्रातरि-
त्यनुकम्पायाम् एष ग्रहो दुरभिनिवेशः । सर्वथा त्वयैवंविधसेवा न कर्त्तव्या ।
अन्यतो गत्वा यया कयाचन विधया वर्तितव्यमिति ॥
२२
वह अनोखी उल्टी जीभ की रचना है (हाथी की जीभ ग्रन्य प्राणियों की
जीभ से भिन्न और उल्टे प्रकार की होती है), कानों में वह (अद्भुत) चञ्चलता
है तथा मस्ती के कारण पराईदिशा ( रास्ते) को भूलने वाली वह
(भ्रामक) नज़र है । और ध(दोषों को गिनाकर) कहने का क्या लाभ ?
भौंरे ! (इस प्रकार का दोषपूर्ण जन्तु भी तुम्हारे लिए सेवनीय है) इस प्रकार का
तुमने क्यों निश्चय कर लिया है ? हे भाई! खोखली सूड वाले औ
पहुँचने से मना करने वाले हाथी की तुम्हारे द्वारा जो अब भी सेवा की जा रही
है, यह तुम्हारी कैसी हठ है ?
यहाँ रसनाविपर्ययविधिः, कर्णयोश्चापलम् तथा मदविस्मृतस्वपरदृक् इन
तीनों पदों में श्लेष से क्रमश: परस्पर विरोधी या उल्टी, अटपटी बातों को
बोलने (उल्टे प्रकार की जीभ) वाले, कानों के चञ्चल
किसी की
• चुगली को कानों से सुनकर विश्वास करने वाले, गर्व के कारण अपने पराये
का विवेक न करने वाली बुद्धि रखने वाले स्वामी के अर्थ का बोध हो रहा है ।
इसी प्रकार अन्तःशून्यकर: और वारण: पदों से अर्थ प्रदान करने वाले हाथो
से रहित और अपने पास न फटकने देने वाला - इन अर्थों का भी श्लेष से ज्ञान
-
हो रहा है ।
'अद्यापि सौ निषेव्यते' से तुम्हें बिलकुल भी इस कंजूस स्वामी की सेवा
नहीं करनी चाहिए इस व्यङ्ग्य वस्तुध्वनि की प्रतीति हो रही है । इस प्रकार
यहाँ श्लेषानुप्राणित प्रस्तुत वाच्य हस्तिवृत्तान्त से प्रस्तुत व्यङ्ग्य कदर्यस्वामि-
काव्यप्रकाश (१०.४४८) में यहश्लोक अप्रस्तुतप्रशंसा के उदाहरण के रूप
वृत्तान्त की प्रतीति होने से सादृश्यनिबन्धना श्लेपानुप्रारिणत अप्रस्तुतप्रशंसा है ।
में
मिलता है ।
leness of the ears, the vision which due to intoxication does not
That strange process of the reversal of the tongue, the fick-
discriminate one's own and the other, what is the use of saying
CC-0 Shashi Shekhar Toshkhani Collection. Digitized by eGangotri
फलम् ? हे भ्रमर षट्पद ! कि त्वं निश्चितवानसि त्वं भ्रमरशीलत्वादन्यत्रापि
जीवितुं शक्तस्तथापि एवंविधः सेव्य इति किमित्थं निश्चितवानसि ? किमर्थमिति
योज्यम् । व्यर्थमिति वा पाठः । असो वारणोऽपि निवारणोऽपि अन्तश्शून्य-
करोऽपि अन्तःसुषिरकरोऽपि अर्थशून्यकरोऽपि वा न किञ्चिदपि दातुं यस्य
शक्तिरेवंविधकरोऽपि असौ वारणो गजो निषेव्यत इति यत् तस्मात् । भ्रातरि-
त्यनुकम्पायाम् एष ग्रहो दुरभिनिवेशः । सर्वथा त्वयैवंविधसेवा न कर्त्तव्या ।
अन्यतो गत्वा यया कयाचन विधया वर्तितव्यमिति ॥
२२
वह अनोखी उल्टी जीभ की रचना है (हाथी की जीभ ग्रन्य प्राणियों की
जीभ से भिन्न और उल्टे प्रकार की होती है), कानों में वह (अद्भुत) चञ्चलता
है तथा मस्ती के कारण पराईदिशा ( रास्ते) को भूलने वाली वह
(भ्रामक) नज़र है । और ध(दोषों को गिनाकर) कहने का क्या लाभ ?
भौंरे ! (इस प्रकार का दोषपूर्ण जन्तु भी तुम्हारे लिए सेवनीय है) इस प्रकार का
तुमने क्यों निश्चय कर लिया है ? हे भाई! खोखली सूड वाले औ
पहुँचने से मना करने वाले हाथी की तुम्हारे द्वारा जो अब भी सेवा की जा रही
है, यह तुम्हारी कैसी हठ है ?
यहाँ रसनाविपर्ययविधिः, कर्णयोश्चापलम् तथा मदविस्मृतस्वपरदृक् इन
तीनों पदों में श्लेष से क्रमश: परस्पर विरोधी या उल्टी, अटपटी बातों को
बोलने (उल्टे प्रकार की जीभ) वाले, कानों के चञ्चल
किसी की
• चुगली को कानों से सुनकर विश्वास करने वाले, गर्व के कारण अपने पराये
का विवेक न करने वाली बुद्धि रखने वाले स्वामी के अर्थ का बोध हो रहा है ।
इसी प्रकार अन्तःशून्यकर: और वारण: पदों से अर्थ प्रदान करने वाले हाथो
से रहित और अपने पास न फटकने देने वाला - इन अर्थों का भी श्लेष से ज्ञान
-
हो रहा है ।
'अद्यापि सौ निषेव्यते' से तुम्हें बिलकुल भी इस कंजूस स्वामी की सेवा
नहीं करनी चाहिए इस व्यङ्ग्य वस्तुध्वनि की प्रतीति हो रही है । इस प्रकार
यहाँ श्लेषानुप्राणित प्रस्तुत वाच्य हस्तिवृत्तान्त से प्रस्तुत व्यङ्ग्य कदर्यस्वामि-
काव्यप्रकाश (१०.४४८) में यहश्लोक अप्रस्तुतप्रशंसा के उदाहरण के रूप
वृत्तान्त की प्रतीति होने से सादृश्यनिबन्धना श्लेपानुप्रारिणत अप्रस्तुतप्रशंसा है ।
में
मिलता है ।
leness of the ears, the vision which due to intoxication does not
That strange process of the reversal of the tongue, the fick-
discriminate one's own and the other, what is the use of saying
CC-0 Shashi Shekhar Toshkhani Collection. Digitized by eGangotri