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भल्लटशतकम्
 
१३
 
उत्तमगुणविनाशस्तथा न व्यथयति यथा दुर्जनोन्मेष इत्याह - पातः पूष्णो
भवतीति । पात इत्यादि । पूष्ण श्रादित्यस्य पातोऽस्तमयो महते निष्प्रतीकारा-
योपतापाय मनोदुःखाय न भवति । यस्माद्धेतोः काले प्राप्ते फलोन्मुखे सति क
इव के वा प्रस्तं न ययुः । अस्तं न यान्ति नास्तं यास्यन्ति च । तस्मादिति
एतावन्मात्रमेव व्यथय तितराम् । लोकवाह्यैः सर्वलोकबहिर्भूतैः तम (भि ) स्तस्मि-
न्नेव प्रकृतिमहति स्वभावत एव प्रथितमहिम्नि व्योम्नि गगने अवकाशो लब्ध
इति यत् तदेतावन्मात्रमेव व्यथयतीति
 
सूर्य का पतन ( अस्त होना बहुत ) बड़े कष्ट के लिए नहीं है (अर्थात्
इससे हम अधिक दुःखी नहीं हैं) क्योंकि इस संसार में (मृत्यु) समय आने पर
कौनसान को प्राप्त नहीं हुए, नहीं हो रहे है अथवा नहीं होंगे (अर्थात्
सभी की यही दशा होती आ रही है और होगी परन्तु ) इतनी बात तो (हमें)
त्यधिक पीड़ित करती है कि (इस ) संसार से बाहर निकाले हुए अन्धकारों के
द्वारा उसी स्वभाव से महान् आकाश में (अपना स्थान बना लिया गया है
( जिसमें पहले सूर्य प्रतिष्ठित था ।
 
ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ महाकवि भल्लट कश्मीर के यशस्वी एवं
लोकप्रिय राजा अवन्तिवर्मा की मृत्यु के अनन्तर सिंहासनारूढ शङ्करवर्मा के
राज्य की दुर्दशा से खिन्न होकर ऐसा लिख रहे हैं । यहाँ प्रस्तुतवाच्य
रवितमोवृत्तान्त से प्रस्तुत व्यङ्ग्य प्राचीन एवं नवीन राजवृत्तान्त की प्रतीति
होने से प्रस्तुत प्रशंसा अलङ्कार है ।
 
It is not very distressing to know that the sun is set. Who,
due to time did not vanish, are not dying or will not perish?
What is very painful is the fact that the same vast sky (which
was previously occupied by the sun now) has been overpowered
by the darkness.
 
पङ्क्तौ विशन्तु' गरिणताः प्रतिलोमवृत्त्या
पूर्वे भवेयुरियताप्यथवा त्रपेरन् ।
सन्तोऽप्यसन्त इव चेत् प्रतिभान्ति भानो-
र्भासाऽऽवृते नभसि शीतमयूखमुख्याः ॥१२॥
 
1. म, अ; विशन्ति क, ह
 
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