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२०
भल्लटशतकम्
हम देवताओं को तो नमस्कार कर लेते किन्तु देवता लोग भी विधाता
के अधीन हैं और विधाता भी हमारे कर्मों का ही फल दे सकता है । अतः कर्मों
को ही नमस्कार है जिनपर विधाता का वश नहीं चलता ।
कवि इस बात पर दुःख प्रकट करता है कि संसार के लोग प्रभुभक्ति का
मार्ग नहीं अपनाते जिसमें प्रानन्द ही आनन्द है-
नाथे श्रीपुरुषोत्तमे त्रिजगतामेकाधिपे चेतसा
सेव्ये स्वस्य पदस्य दातरि सुरे नारायणे तिष्ठति ।
यं कञ्चित् पुरुषाधमं कतिपयग्रामेशमल्पार्थदं
सेवायै मृगयामहे नरमहो मूढा वराका वयम् ।
( शा०श०, ११ )
आश्चर्य है, हम बेचारे भी कितने मूर्ख हैं । तीनों लोकों के स्वामी
भगवान् विष्णु मानसिक सेवामात्र से ही भक्त को अपना परम पद देने को
तैयार रहते हैं । ऐसे प्रभु के रहते हुए भी हम जिस किसी सामान्य जन की
सेवा के लिए लालायित रहते हैं जो हमें तनिक सा टुकड़ा भी डाल देता है ।
वन में स्वतन्त्र विचरते
हुए निश्चिन्त
मृग को सम्बोधित करते हुए कवि
कहता है—
यद्वक्त्रं मुहुरीक्षसे न घनिनां ब्रूषे न चाटुं मृषा
नैषां गर्वगिरः शृणोषि न पुनः प्रत्याशया धावसि ।
काले वालतृणानि खादसि सुखं निद्रासि निद्रागमे
तन्मे ब्रूहि कुरङ्ग ! कुत्र भवता कि नाम तप्तं तपः ॥
(शा०श०, १४)
हे मृग ! तुमने कहाँ कौनसा तप तपा है जो तुम तृण खाकर सुख की
नींद सोते हो और तुम्हें धनियों की खुशामद करने की नौबत नहीं आती ।
अन्तिम अवस्था में भी इस संसार का मोह न छोड़ने वाले दृद्ध के प्रति
कवि कहता है-
अग्रे कस्यचिदस्ति कञ्चिदभितः केनापि पृष्ठे कृतः
संसार:
शिशुभावयौवनजराभावावतारादयम् ।
बालस्तं बहु मन्यतामसुलभं प्राप्तं युवा सेवतां
बृद्धस्त्वं विषयाद् बहिष्कृत इव व्यावृत्य कि पश्यसि ।
CC-0 Shashi Shekhar Toshkhani Collection. Digitized by eGangotri
(शा०श ० )
भल्लटशतकम्
हम देवताओं को तो नमस्कार कर लेते किन्तु देवता लोग भी विधाता
के अधीन हैं और विधाता भी हमारे कर्मों का ही फल दे सकता है । अतः कर्मों
को ही नमस्कार है जिनपर विधाता का वश नहीं चलता ।
कवि इस बात पर दुःख प्रकट करता है कि संसार के लोग प्रभुभक्ति का
मार्ग नहीं अपनाते जिसमें प्रानन्द ही आनन्द है-
नाथे श्रीपुरुषोत्तमे त्रिजगतामेकाधिपे चेतसा
सेव्ये स्वस्य पदस्य दातरि सुरे नारायणे तिष्ठति ।
यं कञ्चित् पुरुषाधमं कतिपयग्रामेशमल्पार्थदं
सेवायै मृगयामहे नरमहो मूढा वराका वयम् ।
( शा०श०, ११ )
आश्चर्य है, हम बेचारे भी कितने मूर्ख हैं । तीनों लोकों के स्वामी
भगवान् विष्णु मानसिक सेवामात्र से ही भक्त को अपना परम पद देने को
तैयार रहते हैं । ऐसे प्रभु के रहते हुए भी हम जिस किसी सामान्य जन की
सेवा के लिए लालायित रहते हैं जो हमें तनिक सा टुकड़ा भी डाल देता है ।
वन में स्वतन्त्र विचरते
हुए निश्चिन्त
मृग को सम्बोधित करते हुए कवि
कहता है—
यद्वक्त्रं मुहुरीक्षसे न घनिनां ब्रूषे न चाटुं मृषा
नैषां गर्वगिरः शृणोषि न पुनः प्रत्याशया धावसि ।
काले वालतृणानि खादसि सुखं निद्रासि निद्रागमे
तन्मे ब्रूहि कुरङ्ग ! कुत्र भवता कि नाम तप्तं तपः ॥
(शा०श०, १४)
हे मृग ! तुमने कहाँ कौनसा तप तपा है जो तुम तृण खाकर सुख की
नींद सोते हो और तुम्हें धनियों की खुशामद करने की नौबत नहीं आती ।
अन्तिम अवस्था में भी इस संसार का मोह न छोड़ने वाले दृद्ध के प्रति
कवि कहता है-
अग्रे कस्यचिदस्ति कञ्चिदभितः केनापि पृष्ठे कृतः
संसार:
शिशुभावयौवनजराभावावतारादयम् ।
बालस्तं बहु मन्यतामसुलभं प्राप्तं युवा सेवतां
बृद्धस्त्वं विषयाद् बहिष्कृत इव व्यावृत्य कि पश्यसि ।
CC-0 Shashi Shekhar Toshkhani Collection. Digitized by eGangotri
(शा०श ० )