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सम्पादकीय
 
१६
 
देती है पर उसके विरह में सारा विश्व ही प्रियामय प्रतीत होता है ।
यह रागात्मकता की चरम सीमा है ।
 
प्रासादे सा पथि पथि च सा पृष्ठतः सा पुरः सा ।
 
पर्ये सा दिशि दिशि च सा नास्ति तद्वियोगातुरस्य ॥
देहान्तः सा बहिरपि च सा नास्ति दृश्यं द्वितीयं ।
 
सा सा सा सा त्रिभुवनगता तन्मयं विश्वमेतत् ॥
संगमविरहवितर्फे वरमिह विरहो न संगमस्तस्याः ।
 
सगे सैव तथैका त्रिभुवनमपि तन्मयं विरहे ॥
 
६. शान्तिशतक : नीति और भक्ति के बीच भूलता हुआ एक अन्य
मुक्तककाव्य कश्मीरी कवि शिल्हरण या सिल्हरण (१३वीं शताब्दी) का शान्ति-
शतक है। यह काव्य भर्तृहरि के वैराग्यशतक के अनुकरण पर रचा
गया प्रतीत होता है । जीवानन्द विद्यासागर सम्पादित संस्करण में १०१ पद्य हैं
जिनमें से सात पद्य भर्तृहरि के वैराग्यशतक से लगभग अक्षरशः मिलते
हैं । कुछ अन्य में भावसाम्य है । १२०२ ईसवी में श्रीधरदास द्वारा सम्पादित
सदुक्तिकर्णामृत में शिल्हण को कश्मीरी कवि कहा गया है और
शान्तिशतक के पद्य भी उद्धृत किये गये हैं। स्पष्ट है कि शिल्हण भर्तृहरि
के बाद और श्रीधरदास से पूर्व हुए होंगे। कल्हण की राजतर्राङ्गणी
में शिल्हण का उल्लेख नहीं मिलता। हो सकता है शिल्हरण कल्हण के बाद हुए
हों या फिर कवि के कश्मीर से बाहर चले जाने से उस की चर्चा का प्रसंग
न आया हो । इस शतक के अधिकांश हस्तलेख बंगाल से प्राप्त हुए हैं। एक
हस्तलेख ही जम्मू के श्रीरणवीर संस्कृत अनुसंधान संस्थान में सुरक्षित है।
 
शान्तिशतक के पद्य परितापोपशम, विवेकोदय, कर्त्तव्योपदेश तथा
ब्रह्मप्राप्तिनामक चार परिच्छेदों में विभाजित हैं । शतक के प्रारम्भ में कर्मों
की महिमा बताई गई है-
नमस्यामो देवान् ननु हतविधेस्तेऽपि वशगा
 
विधिर्वन्द्यः सोऽपि प्रतिनियतकर्मैकफलदः ।
फलं कर्मायत्तं किममरगणैः किञ्च विधिना
 
नमस्तत् कर्मभ्यो विधिरपि न येभ्यः प्रभवति ॥
 
( शा०श०, १ )
 
1. चौ० प० कश्मीरी पाठ अन्तिम पद्य ।
 
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