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भल्लटशतकम्
 
• प्रियतम की विदाई की घड़ी आ पहुँची है, यह सुनते ही प्रेमिका की
आँखें डरी हुई हरिणी की तरह चञ्चल हो उठीं, वाणी लड़खड़ा उठी, आँसू
• बहने लगे और तभी उसने भारी शोक से मुख नीचा कर लिया ।
 
नायक ने जिस राजपुत्री को अपने हृदय में स्थान दिया है उसे
के गन्धर्व, यक्षादि की कन्या समझ लेता है-
अद्यापि तां नृपतिशेखरराज पुत्रीं
सम्पूर्णयौवनमदालसघूर्णनेत्राम् ।
 
गन्धर्वयक्षसुरकिन्नरनागकन्यां
 
स्वर्गादहो निपतितामिव चिन्तयामि ॥
 
(चौ०प०, ४५ )
 
प्राप्त करने के प्रयास में नायक को अपने प्राणों के चले जाने का भी भय
चौरपञ्चाशिका के परिशिष्ट में उपलब्ध इस श्लोक में प्रेमिका को
 
नहीं है -
 
भवत्कृते खञ्जनमञ्जुलाक्षि
 
शिरो मदीयं यदि
 
दशाननेनापि दशाननानि
 
यातु यातु ।
 
नीतानि नाशं जनकात्मजार्थम् ॥
 
वह स्वर्ग
 
बिल्हणपञ्चाशत्प्रत्युत्तर अथवा
 
बिल्हणपञ्चशिका अथवा चौरपञ्चाशिका के उत्तर में लिखा
 
नाम
 
से परिशिष्ट मिलता है। यहाँ कव्वाली की उत्तर प्रत्युत्तर की शैली में नायिका
की ओर से कहीं गया है - हे सखी! मैं वासगृह में उस छलिया के साथ
 
नरेन्द्रतनयासञ्जल्पित
 
बिताये प्रेमपगे क्षणों को याद कर रही हूँ-
अद्यापि तेन कितवेन गृहीतवस्त्रा
प्रेमार्द्ररुद्धवचनानि मुहुः सृजन्ती
शय्यानिवेशभवनं सखि नीयमाना ।
 
चात्मानमप्रतिमलब्धरसं स्मरामि ॥
 
गो
 
(चौ०प०, परिशिष्ट ३)
 
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विरह को मिलन से बहुमूल्य मानता है क्योंकि मिलन में तो वह एक दिखाई
चौरपञ्चाशिका के कश्मीरी पाठ के अन्तिम पद्यों में कवि प्रिया के
 
(चौ०प०, परिशिष्ट २)