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भल्लटशतकम्
 
तावद्धर्मकथा मनोभवरुचिर्मोक्षस्पृहा जायते
 
यावत्तृप्तिसुखोदयेन न जनः क्षुत्क्षामकुक्षिः क्षणम् ing
 
प्राप्ते भोजनचिन्तनस्य समये वित्तं निमित्तं विना
 
धर्मे कस्य घियः स्मरं स्मरति कः केनेक्ष्यते मोक्षभूः ॥
 
धर्म की कथाएँ, काम में रुचि और मुक्ति की चाह तभी होती हैं जब
मनुष्य का पेट भरा हो । गाँठ में पैसा न होने पर भोजन की चिन्ता लगी हो
तो कुछ और नहीं सूझता ।
 
तृतीय परिच्छेद में कामप्रशंसा के प्रसंग में नारी के सौन्दर्य का, प्रियजन
के विरह की पीड़ा का तथा मिलन की घड़ियों के हर्षातिरेक का अंकन है । जो
नारी संयोगावस्था में आनन्दसन्दोह है वही विरहावस्था में दुःखजनिका हो
जाती है -
 
(च०स०, २,२४)
 
कुवलयमयी लोलापाङ्गे तरङ्गमयी ध्रुवोः
 
शशिशतमयी वक्त्रे गात्रे मृणाललतामयी ।
मलयजमयी स्पर्शे तन्वी तुषारमयी स्मिते
 
दिशति विषमं स्मृत्या तापं किमग्निमयीव सा ॥
 
यह क्या बात है कि वही प्रिया जिसके चञ्चल नयन नीलकमल से हैं,
भौहें तरङ्गों सी, मुख सौ चन्द्रों के समान और गात्र मृणाललता की तरह है और
जिसका स्पर्श चन्दन की तरह और मुस्कान हिमकरणों की तरह शीतल है वही
प्रिया विरह में क्यों अग्निमयी सी हो जाती है और उसकी याद भी विषम ताप
को उत्पन्न करने लगती है ?
 
समायाते पत्यो बहुतरदिनप्राप्यपदवीं
 
प्रियमिलन के अवसर पर हर्षविभोर नायिका की चेष्टायें देखते ही
बनती हैं :
 
समुल्लङ्घ्याविघ्नागमनचतुरं चारुनयना ।
 
स्वयं हर्षोद्वाप्पा हरति तुरगस्यादरवती
 
( च०स०, ३, ७ )
 
रजः स्कन्धालीनं निजवसनकोणावहननैः ॥
 
(च०स०, ३,१८५ )
 
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