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भल्लटशतकम्
 
नील कमलों का वह समूह, जूही की वह क्यारी और वह सुन्दर लवङ्गलता सव
के सब दूर चले गये हैं ।
 
निराशा भरे विपरीत वातावरण में जीवन की तुलना में मृत्यु ही श्रेयस्कर
लगने लगती है। जब कभी कवि अपने को चारों ओर से स्वार्थ,
तथा अपमान से घिरा पाता है तो उसकी लेखनी सौन्दर्य की सृष्टि नहीं कर
घृणा, उपेक्षा
पाती । उसकी आत्मा मृत्यु के आलिङ्गन को चाहने लगती है । इसी
अभिव्यक्ति लवङ्ग को कही गई इस उक्ति में है—
 
भाव की
 
कुञ्जे कोरकितं करीरतरुभि द्रेक्काभिरुन्मुद्रितं
 
यस्मिन्नङ्कुरितं करज्जविटपैरुन्मीलितं पीलुभिः ।
तस्मिन् पल्लवितोऽसि कि वहसि कि कान्तामनोवागुरा-
भङ्गीमङ्ग लवङ्ग भङ्गमगम: कि नासि कोऽयं क्रमः ॥
(प्र०म०, ४३)
 
हे लवङ्ग, जिस कुञ्ज में करीर के पेड़ पनप रहे हैं, जहाँ द्रेक के पेड़
खिल रहे हैं, जहाँ करील के झाड़ों के अंकुर फूट रहे हैं और पीलू विकसित हो
रहे हैं, वहाँ तुम व्यर्थ क्यों खिल रहे हो ? क्यों व्यर्थ ही रमणियों के मनों को
बाँघने वाली अदायें दिखा रहे हो ? तुम टूट ही क्यों नहीं गये ? यह कैसी
रीत है ?
 
परोपकार से नितान्त विमुख प्रचुर धन सम्पन्न व्यक्ति को उलाहना देते
हुए कवि समुद्र के बहाने कहता है-
नीरं नीरसमस्तु कौपमिति तत्पाथो वरं मारवं
 
कासाराम्बु तदस्तु वा परिमितं तद्वाऽस्तु वापीपयः ।
पाने मज्जनकर्म नर्मरिण तथा बाह्यैरलं वारिधे
 
कल्लोलावलिहारिभिस्तव नमः सञ्चारिभिर्वारिभिः ॥
( [अ०म०, ५७ )
 
हे समुद्र ! तुम्हारी आकाश तक उठने वाली लहरों का क्या करें जिनका
पानी न पीने के काम आता है और न नहाने के । तुम्हारे पानियों से कूएँ का
नीरस जल ही भला है और छोटे तलैया तथा बावली का उथला पानी ही
अच्छा है।
 
शम्भु की कई अन्योक्तियाँ शृङ्गार का पुट लिए अपनी प्रियतमा की
 
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