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सम्पादकीय
 
उत्कण्ठाकुलमस्तु कण्टककुले सञ्जायतां ते मनः
 
सानन्दं पिचुमन्दकन्दलदलास्वादेषु का वा क्षतिः ।
एतत् किं नु तव क्रमेलक कथङ्कारं सहे दुःसहं
 
तस्मिन् पुण्ड्रककन्दलीकिसलये येनासि निन्दापरः ॥
 
१३
 
( प्र०म०, १८ )
 
यदि तेरा मन कांटों के समूह को पाने और नीम के पत्तों को खाने से
आनन्दित होता है तो होता रहे, इसमें क्या हानि है ? परन्तु हे ऊँट ! मैं
तेरी यह धृष्टता कैसे सहन कर लूं जो तू मीठे गन्ने की पोरियों की निन्दा
करने में लगा है ?
 
आलोचकों के शिकार किसी कवि के प्रति सान्त्वना भरे शब्द पौंडे
(गन्ने) के माध्यम से कहे हैं-
धत्ते कीरवषूरदच्छदसुधामाधुर्यमुद्रां रसो
 
येषां सा परिपाकसम्पदपि च क्षौद्रद्र वद्रोहिणी ।
तेषां पुण्ड्रककाण्ड पाण्डिमजुषां त्वत्पूर्वरणां चर्वरणां
 
कि मुग्धाः करभा मुधैव विरसा विन्दन्ति निन्दन्ति च ॥
( ऋ०मु०, ८)
 
SAMOCH
 
हे गन्ने ! तुम्हारी जिन पोरियों का रस कश्मीर देश की सुन्दर रम-
णियों के अधरों की मधुर छाप लिये है और जिसका पका हुआ गुड़ शहद को
भी मात करता है, उन सफेद पोरियों के आस्वाद को ये अरसिक ऊँट व्यर्थ ही
प्राप्त करते हैं और व्यर्थ ही उनकी निन्दा करते हैं ।
 
याच्यस्ते खदिरः करीरविटपः सेव्योऽपि कि कुर्महे
 
मार्गः सङ्गत एष ते खरतरुद्भैरवो
तन्मल्लीमुकुलं तदुत्पलकुलं सा यूथिकावीथिका
 
वर्तमान की कटुता से सन्त्रस्त कवि सुन्दर अतीत की स्मृतियों को कुरेदता
हुआ भ्रमर को लक्ष्य करके कहता है-
मारव ।
 
चङ्गं तच्च लवङ्गमङ्ग भवतो हा भृङ्ग दूरं गतम् ॥
( [अ००, ३३ )
 
रे सुन्दर भंवरे ! अब तुम्हें खैर के पेड़ से ही याचना करनी है और
करीर के पेड़ की सेवा करनी है । हम क्या करें ? अब तुम्हारे लिए यह काँटे-
दार वृक्षों से भरा रेगिस्तानी रास्ता ही उपयुक्त है । वह मल्लिका की कली,
 
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