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भल्लट शतकम्
 
प्रधानता सारी व्यवस्था का सौन्दर्य बिगाड़ देती है। हार गूंथने वाले माली के
प्रति कही इस अन्योक्ति में यही भाव ध्वनित होता है-
१२
 
उत्फुल्लैर्बकुलैर्लवङ्गमुकुलैः
 
शेफालिकाकुड्मलै-
र्नीलाम्भोजकुलैस्तथा विचकिलैः क्रान्तं च कान्तं च यत् ।
१) तस्मिन् सौरभधाम्नि दाम्नि किमिदं सौगन्धवन्ध्यं मुधा
 
मध्ये मुग्ध कुसुम्भमुम्भसि भवेन्नैवैष युक्तः क्रमः ॥
 
( [अ०मु०, ५)
लवङ्ग की
 
सौरभ का आगार जो हार खिले हुए मौलसिरी के फूलों से,
कलियों से, शेफालिका के मुकुलों से नीलकमलों से औौर विचकिल फूलों से
गूँथा शोभा दे रहा है, उस के बीचों बीच, अरे भोले, यह निर्गन्ध कुसुम्भ क्यों
गूंथ रहे हो ? यह तो ठीक रीत नहीं !
 
असहृदयों के बीच फंसे कविहृदय की वेदना मौलसिरी की छोटी सी बेल
की अन्योक्ति में फूट पड़ी है । मौलसिरी पर अल्पवयस्का नायिका के व्यवहार
का आरोप करते हुए कवि कहता है-
केनात्र
 
कर्कशकरीरवनान्तराले
 
बाले 'बलाद् बकुलकन्दलि रोपितासि ।
यत्राप्नुयु र्मधुलिहस्तव कोमलानि
 
D
 
कांग
 
नो कुड्मलानि न दलानि न कन्दलानि ॥
 
अरी भोली मौलसिरी की बेल ! तुम्हें किसने ज़बर्दस्ती इन कठोर कंटीले
(अ०मु०, ७)
करीर के पेड़ों के जंगल के बीच लगा दिया है ? तुम्हारी कोमल कलियों,
पत्तों तथा अंकुरों तक भँवरे नहीं पहुँच पाते । मौलसिरी के सुकुमार नन्हें-
नन्हें नक्षत्राकार फूलों की मादक सुगन्धि भंवरों को मुग्ध कर देने वाली होती
है, परन्तु पत्तों रहित काँटेदार करीर के जंगलों में खिलते हुए उन फूलों का
मूल्य कौन पहचान पाता है । प्रशंसा और अनुराग की प्यास हृदय में लिए वे
फूल कहीं काँटों में गिर कर मुरझा जाते हैं। असहृदय अपरिचितों की भीड़
में अपने को अकेला पाते हुए कवि की घुटन मौलसिरी के वर्णन के माध्यम
से कितने उग्र रूप में प्रकट हुई है।
 
Amst
 
सहानुभूतिशून्य ईर्ष्यालु आलोचकों को सुनाते हुए कवि की ऊँट के प्रति
 
उक्ति है -
 
CC-0 Shashi Shekhar Toshkhani Collection. Digitized by eGangotri