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भल्लटशतकम्
 
अन्तश्छिद्राणि भूयांसि कण्टका बहवो बहिः ।
कथं कमलनालस्य मा भूवन् भङ्गुरा गुणाः ॥ (भ०श०, २४)
 
भीतर अनेक छिद्र हैं और बाहर बहुत से काँटे हैं, फिर भला कमलनाल
गुण क्षणभङ्गुर कैसे न हों ?
 
के
 
शासक को किसी प्रकार की कठिन से कठिन परिस्थितियों में पड़ कर भी
राष्ट्र की सुरक्षा करनी चाहिए इस सिद्धान्त का प्रतिपादन पुरुषोत्तम विष्णु-
विषयक एक अन्योक्ति में है-
पुंस्त्वादपि प्रविचलेद्यदि यद्यधोऽपि
 
यायाद् यदि प्ररणयने न महानपि स्यात् ।
अभ्युद्धरेत्तदपि विश्वमितीदृशीयं
 
केनापि दिक् प्रकटिता पुरुषोत्तमेन ॥
 
इस उक्ति में विष्णु के मोहिनी अवतार तथा वामनावतार की
( भ०श०, ७६ )
किए गये संकेत से राष्ट्रोद्वार में संलग्न शासक को यह उपदेश दिया गया है कि
उसे राष्ट्ररक्षा के लिए बड़े से बड़े अपमान और निजी व्यक्तित्व के बलिदान
 
के लिए तैयार रहना चाहिए ।
 
विप्रलम्भ शृङ्गार में पगे एक पद्य में विरहिणी का उलाहना बड़े मार्मिक
ढंग से अभिव्यक्त हुआ है । सुगन्धित वायु और गरजते मेघों के साथ आकर
वर्षाकाल ने उसके हृदय की पीड़ा जगा दी है। मोरों ने नाचना प्रारम्भ कर
दिया है, बिजली चमक चमक कर उसका दिल दहला रही है। वियोगिनी
• नायिका को वायु, मयूर और मेघ से कोई शिकायत नहीं क्योंकि वे सब कठोर-
हृदय प्राणी हैं। नारी की व्यथा नहीं पहचानते । पर शिकायत तो इस
• विद्युत् से है जो उसकी भाँति नारी होती हुई भी निर्दयता का व्यवहार कर
है । उसे तो कोमलहृदया नारी होने के नाते पतिवियुक्ता के प्रति सहानुभूति
दिखानी चाहिए थी । कितना चुभता हुआ उलाहना है ।
 
वाता वान्तु कदम्बरेणुबहला नृत्यन्तु सर्पद्विषः
 
सोत्साहा नवतोयदानगुरवे मुञ्चन्तु नादं घनाः ।
 
मग्नां कान्तवियोगदुःखदहने मां वीक्ष्य दीनाननां
 
• विद्युत् स्फुरसि त्वमप्यकरुणे ! स्त्रीत्वेऽपि तुल्ये सति ॥
अश०, १७)
 
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