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सम्पादकीय
 
सूर्य का प्रस्त हो जाना महान् कष्ट की बात नहीं क्योंकि काल आने पर
कौन इस दुनियां से नहीं चल बसे ? दूसरे भी जा रहे हैं और जाते रहेंगे, पर
सबसे अधिक दुःख तो इस बात का है कि सूर्य के जाते ही इस लोक से बाहर
के अन्धकारों ने विशाल नभ पर अधिकार जमा लिया है।
 
यह अन्योक्ति दो बिम्ब उपस्थित करती है। एक है सूर्य के प्रकाश से प्रदीप्त
सुनहले दिवस का, जिसकी महत्ता और उपादेयता का अनुमान कश्मीर की बर्फीली
घाटियों में रहने वाले ही लगा सकते हैं और दूसरा है गहरी काली अमावस की
रात का । कवि ने अभिधा से कुछ नहीं कहा पर अन्धकार का काला साया हृदय
पर गहरी चोट करता हुआ कवि के हृदय की व्यथा का परिचय दे देता है।
अवन्तिवर्मा के निधन के बाद किसी सामान्य स्तर के नृप का उदय भी लोगों
की विरह व्यथा को दूर नहीं कर सकता था, पर कवि को यह देखकर और
भी दुःख होता है कि अब क्षुद्रहृदय व्यक्ति ही अन्धकार को नष्ट करने को
तैयार हो रहे हैं । कैसी विडम्बना है !
 
गते तस्मिन् भानी त्रिभुवनसमुन्मेषविरह-
इदं
 
व्यथां चन्द्रो नैष्यत्यनुचितमतो नास्त्यसदृशम् ।
चेतस्तापं जनयतितरामत्र यदमी
प्रदीपा:
 
संजातास्तिमिरहतिबद्धोद्धरशिखाः ॥
 

 
(भ०श०, १३ )
 
पता नहीं किस चाटुकार ने एक कीड़े को खद्योत नाम दे दिया है जो
नाम अर्थ में सूर्य को छोड़ कर चन्द्र तक को भी नहीं छूता-
सूर्यादन्यत्र यच्चन्द्रेऽप्यर्थासंस्पशि तत्कृतम् ।
खद्योत इति कीटस्य नाम तुष्टेन केनचित् ॥
 
शब्दमात्रमपि सोढुमक्षमा
 
( भ०श०, १४ )
 
भल्लट देख रहा था कि अब लक्ष्मी दुष्टों के पास ही पहुँचती है, सज्जनों
के पास नहीं । यही नहीं, विद्वानों की सदुक्तियाँ भी उसे सहन नहीं होतीं।
स्वच्छन्दचारिणी अभिसारिका के माध्यम से कवि ने निजी व्यथा कही है।
स्वच्छन्दचारिणी दुष्ट अभिसारिका लक्ष्मी गहरे अन्धकार भरे रास्तों से जाती
हुई गुरणी जन के भूषणों की आवाज़ को भी सहन नहीं कर पाती-
(४०) श्रीविशृङ्खलखलाभिसारिका
 
वत्मंभि र्घनतमोमलीमसैः ।
 
भूषणस्य गुणिनः समुत्थितम् ॥
 
( भ०श०, ७ )
 
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