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भल्लटशतकम्
 
३. मुक्तक का स्वरूप एवं भेद
 
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प्रबन्धकाव्य (महाकाव्य) और मुक्तककाव्य में स्वरूपभेद है।
प्रवन्धकाव्य के रसास्वादन में कथावस्तु की गति तथा पात्रों के चरित्र का
विकास भी सहायक होता है। पात्रों के विषय में बने तत्तत्संस्कार उन पात्रों
की उक्तियों को बोधगम्य बनाते हैं तथा रसानुभूति के सम्पादन में ह
देते हैं । कथावस्तु की कौतुकपूर्ण रमणीयता भी पाठक के हृदय को आकर्षित
करती है और आगे के घटनाक्रम को जानने की उत्सुकता उसे शीघ्रातिशीघ्र
आगे बढ़ने को प्रेरित करती है । इस उत्सुकता के कारण प्रबन्धकाव्य के
अनेक नीरस पद्यों की ओर पाठक का ध्यान नहीं जाता और वहाँ काव्य के
myma
 
बीच दो चार नीरस पद्य भी खप जाते हैं परन्तु मुक्तककाव्य में पाठक को
 
कुछ समय तक उसका हृदय केवल एक पद्यविशेष पर ही टिका रहता है ।
वहाँ न तो पात्रों के विषय में पाठक के बने हुए संस्कार ज़्यादा
और न ही पूर्व घटनाक्रम से समुत्पादित उसकी भावी घटनाओं की ओर उन्मु
खता होती है। इसीलिए मुक्तककाव्य का चमत्कारक्षम होना आवश्यक माना
है। समय समय के अनुसार इस चमत्कृति तथा रमणीयता की परिभाषा
 
2. काम करते हैं
 
गया
 
चाहे बदलती रही हो परन्तु मुक्तक में
 
प्रतिपादक सभी उपकरणों की उपस्थिति अपेक्षित समझी जाती रही है । जब
 
त्यानुसार
 
उस रमणीयता के
 
कोई मुक्तक ब्रह्मानन्द सहोदर रस द्वारा पाठक के
 
करके
 
हृदय
को
 
आनन्दमग्न
 
उसे अन्य विषयों से विरत करा देता है तभी वह सफल मुक्तक कहा जा सकता
है। आनन्दवर्धन ने अमरुक के मुक्तक पद्यों की प्रशंसा करते हुए एक एक
 
मुक्तक को प्रबन्धकाव्य के समकक्ष रख दिया है---
 
मुक्तकेषु हि प्रबन्धेष्विव रसबन्धाभिनिवेशिनः कवयो दृश्यन्ते यथा
ह्यमरुकस्य कवे मुक्तकाः शृङ्गाररसस्यन्दिनः प्रबन्धायमानाः प्रसिद्धा एव ।
 
प्रवन्धकाव्यों के समान मुक्तकों में भी रस में
 
1 आग्रह रखने वाले कवि
 
पाये जाते हैं जैसे अमरुक कवि के शृङ्गार रस को प्रवाहित करने वाले प्रबन्ध
कवियों द्वारा लिखे गये इन मुक्तकों के अनेक भेद हैं। इनमें अन्यापदेश या
काव्य सदृश (विभावादि से परिपूर्ण) मुक्तक प्रसिद्ध ही हैं। कश्मीरी महा-
1. ध्वन्यालोक, ३, ७ वृत्तिभाग
 
CC-0 Shashi Shekhar Toshkhani Collection. Digitized by eGangotri