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सम्पादकीय
 
छन्द से निबद्ध एकाकी और दूसरे श्लोक की अपेक्षा न रखने वाले पद्य
को मुक्तक कहते हैं । मुक्तक के लिए छन्दोबद्ध या वृत्तगन्धि होना अनिवार्य
धर्म है ।
 
आर्यासप्तशती और गाथासप्तशती की आर्यायें और गाथायें
भी मुक्तकों का एक रूप हैं । इनको जब अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार के माध्यम
से प्रस्तुत किया जाता है तो ये अन्यापदेश मुक्तक कहलाते हैं । अप्रस्तुतप्रशंसा
वह अर्थालङ्कार है जहाँ किसी अप्रस्तुत वाच्य के कथन से प्रस्तुत व्यङ्ग्य का
बोध कराया जाता है । इसके पाँच भेद हैं—
 
कांगड
 
१. अप्रस्तुत वाच्य कारण से प्रस्तुत व्यङ्ग्य कार्य का उपस्थापन ।
 
२. अप्रस्तुत वाच्य कार्य से प्रस्तुत व्यङ्ग्य कारण का उपस्थापन ।
 
३. अप्रस्तुत वाच्य सामान्य से प्रस्तुत व्यङ्ग्य विशेष का उपस्थापन ।
४. अप्रस्तुत वाच्य विशेष से प्रस्तुत व्यङ्ग्य सामान्य का उपस्थापन ।
 
५. सादृश्य के आधार पर अप्रस्तुत वाच्य से प्रस्तुत व्यङ्ग्य का
 
उपस्थापन ।
 
यह अन्तिम समात्समा अर्थात् समान गुण से समान गुरण का बोध कराने
वाली अप्रस्तुतप्रशंसा कभी श्लेष से होती है तो कभी बिना श्लेष के ।
चमत्कारपूर्ण अन्यापदेश मुक्तकों का यही अप्रस्तुतप्रशंसा मूल आधार है।
समय बीतने पर आगे जाकर हिन्दी साहित्य में प्रचलित अन्योक्ति, सतसई,
दोहा और सोरठा इसी मुक्तक की परम्परा में आते हैं । उर्दू के शेर और
फ़ारसी की रुबाई भी मुक्तक की शैली कही जा सकती है। हिन्दी में बिहारी-
सतसई, गुञ्जन
और दीपशिखा इसी शैली पर लिखे काव्य हैं ।
बिहारीसतसई की प्रशंसा में यह उक्ति प्रचलित है—
 
सतसैया के दोहरा ज्यों नावक के तीर ।
देखत में छोटे लगें घाव करें गम्भीर ॥
 
नावक के तीर से अभिप्राय है वह छोटी नली में रखे हुए पाँच दस बारण
 
जो इकट्ठे लक्ष्य पर चलाये जाते हैं ।
 
- साहित्यदर्पण, ६, २९५
 
1, वृत्तगन्धोज्झितं गद्यं मुक्तकं वृत्तगन्धि च ।
 
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