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सम्पादकीय
 
१. संस्कृत कविता को कश्मीर का योगदान
 
संस्कृत कविता तथा काव्यशास्त्र की विभिन्न विधाओं के प्रणयन में
कश्मीर के कवियों तथा काव्यशास्त्रियों का महान् योगदान रहा है । सहज
प्रतिभा के धनी इन महाकवियों ने मुक्तककाव्य, महाकाव्य, खण्डकाव्य,
गीतिकाव्य, ऐतिहासिक काव्य, धार्मिक काव्य तथा नीतिकाव्यादि सभी
प्रकार के काव्यों की रचना की है। यदि भल्लट, कल्हरण, बिल्हण, शम्भु,
जोनराज तथा श्रीवर आदि कश्मीरी कवियों की रचनाओं को संस्कृत साहित्य
में से निकाल दिया जाये तो गुरण और परिमाण में बहुत थोड़ा साहित्य संस्कृत
भाषा के पास रह जायेगा । साहित्यशास्त्र के रस, अलङ्कार, रीति, वक्रोक्ति,
ध्वनि एवं प्रौचित्य जैसे विभिन्न सम्प्रदाय कश्मीर की घाटी में उपजे और
पनपे हैं । यह बात दूसरी है कि भरत, दण्डी, विश्वनाथ, विश्वनाथदेव एवं
पण्डितराज जगन्नाथ आदि आचार्य कश्मीरेतर हैं । परन्तु इन आचार्यों की
संख्या अल्प ही है । वस्तुतः भामह, वामन, उद्भट, रुद्रट, आनन्दवर्धन,
महिमभट्ट, अभिनवगुप्त, मम्मट और क्षेमेन्द्र आदि कश्मीरी आचार्यों की कृतियों
के बिना प्राचीन भारतीय काव्यशास्त्र अस्तित्वहीन सा हो जायेगा । वितस्ता
नदी तथा डल झील के इस हरे भरे प्रदेश में पुरातन काल से ही दर्शन,
काव्य तथा समालोचना सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे जाते रहे हैं जिनसे
कश्मीर की गरिमा भारत की सीमाओं को भी लाँघकर दूर दूर तक जा पहुंची
है । यह शास्त्रीय ज्ञान तथा ग्रन्थरचना की परम्परा आज भी विद्यमान है ।
परन्तु इस दिशा में उल्लेखनीय परिणाम प्राप्त करने के लिए विशेष योजना,
कड़ी तपस्या और घोर साधना की आवश्यकता है । हस्तलिखित ग्रन्थों के
प्रकाशन, प्रकाशित ग्रन्थों के अनुवाद तथा समालोचना एवं नई मौलिक
कृतियों से यह उज्ज्वल परम्परा जीवित रह सकेगी। प्रस्तुत संस्करण इस
दिशा में एक विनम्र प्रयास है ।
 
२. मुक्तक का लक्षण
 
शब्दकल्पद्रुम में मुक्तक की व्युत्पत्ति इस प्रकार दिखलाई गई है -
मुक्तकं क्ली ० ( मुच्यते स्मेति । मुच् + क्त संज्ञायां कन्) काव्यविशेषः । इस व्युत्पत्ति
 
1. राजा राधाकान्तदेवविरचित शब्दकल्पद्रुम, तृतीय काण्ड, सं० ७२६ (दिल्ली, १९६१)
 
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