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भल्लटशतकम्
१२५
प्रस्तुत उच्च कुल में पैदा होने वाले नोच व्यक्ति के वृत्तान्त की प्रतीति होने से
अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार है ।
O Kālakūta poison, how is it possible that you are born from
this ocean which is the abode of god Vişņu, the well doer of the
subject, which is the birth place of nectar, which is endowed
with the spreading light of the group of rays of the moon ?
फलितघनविटपविघटित-
पदिनकरमहसि लसति कल्पतरौ ।
छायार्थी क: पशुरपि
भवति जरवीरुधां
प्रणयी ॥१०३॥
फलितघनविटपविघटितपटुदिनकरमहसि कल्पतरौ लसति सति
छायार्थी कः पशुः अपि जरवीरुधाम् प्ररगयी भवति ।
अस्य श्लोकस्य कापि व्याख्या नोपलभ्यते । स्वीया टीकाऽत्र प्रस्तूयते ।
कश्चित् मूर्खोऽपि याचक: परमोदारं दानिनं परित्यज्य कृपणं न यांचते
इत्याह – फलिघतनविटपेति । फलितः फलभारतम्रैः घनः निविड: विटपैः
शाखाभिः विघटितं नाशितं पटु तीव्रं दिनकरमहः सूर्यतेजः घर्म वा येन स
तस्मिन् कल्पतरौ कल्पवृक्षे लसति शोभमाने सति छायार्थी छायाभिलाषी क
पशुः अपि जरद्वीरुधाम् जरल्लतानां प्ररणयी प्रेमी भवति ।
फलों से भरी घनी (अपनी शाखाओं से तीव्र सूर्य के ताप के दूर : करने
वाले कल्पवृक्ष के शोभित होते हुए कौन पशु भी छाया की चाह करता हुआ
जीर्ण शीर्ण लताओं का प्रेमी बनता है ? अर्थात् कल्पतरु को छोड़ कर वह उन
लताओं की ओर नहीं दौड़ता है।
यहां अप्रस्तुत वाच्य पशु कल्पतरु और लता वृत्तान्त से प्रस्तुत व्यंङ्ग्य
मूर्ख याचक, उदारदानी तथा कृपरण घनी के वृत्तान्त की प्रतीति होने से
अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार है ।
No stupid animal seeking shade would resort to decayed and
withered creepers when there shines a Kalpataru tree capable
of warding off the scorching heat of the sun with its many bran-
ches full of flowers and fruits.
1. क, म, ह; छायामर्थी अ
CC-0 Shashi Shekhar Toshkhani Collection. Digitized by eGangotri
१२५
प्रस्तुत उच्च कुल में पैदा होने वाले नोच व्यक्ति के वृत्तान्त की प्रतीति होने से
अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार है ।
O Kālakūta poison, how is it possible that you are born from
this ocean which is the abode of god Vişņu, the well doer of the
subject, which is the birth place of nectar, which is endowed
with the spreading light of the group of rays of the moon ?
फलितघनविटपविघटित-
पदिनकरमहसि लसति कल्पतरौ ।
छायार्थी क: पशुरपि
भवति जरवीरुधां
प्रणयी ॥१०३॥
फलितघनविटपविघटितपटुदिनकरमहसि कल्पतरौ लसति सति
छायार्थी कः पशुः अपि जरवीरुधाम् प्ररगयी भवति ।
अस्य श्लोकस्य कापि व्याख्या नोपलभ्यते । स्वीया टीकाऽत्र प्रस्तूयते ।
कश्चित् मूर्खोऽपि याचक: परमोदारं दानिनं परित्यज्य कृपणं न यांचते
इत्याह – फलिघतनविटपेति । फलितः फलभारतम्रैः घनः निविड: विटपैः
शाखाभिः विघटितं नाशितं पटु तीव्रं दिनकरमहः सूर्यतेजः घर्म वा येन स
तस्मिन् कल्पतरौ कल्पवृक्षे लसति शोभमाने सति छायार्थी छायाभिलाषी क
पशुः अपि जरद्वीरुधाम् जरल्लतानां प्ररणयी प्रेमी भवति ।
फलों से भरी घनी (अपनी शाखाओं से तीव्र सूर्य के ताप के दूर : करने
वाले कल्पवृक्ष के शोभित होते हुए कौन पशु भी छाया की चाह करता हुआ
जीर्ण शीर्ण लताओं का प्रेमी बनता है ? अर्थात् कल्पतरु को छोड़ कर वह उन
लताओं की ओर नहीं दौड़ता है।
यहां अप्रस्तुत वाच्य पशु कल्पतरु और लता वृत्तान्त से प्रस्तुत व्यंङ्ग्य
मूर्ख याचक, उदारदानी तथा कृपरण घनी के वृत्तान्त की प्रतीति होने से
अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार है ।
No stupid animal seeking shade would resort to decayed and
withered creepers when there shines a Kalpataru tree capable
of warding off the scorching heat of the sun with its many bran-
ches full of flowers and fruits.
1. क, म, ह; छायामर्थी अ
CC-0 Shashi Shekhar Toshkhani Collection. Digitized by eGangotri