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भल्लंटशतकम्
 
प्रत्युपकर्ताओं में आगे होकर तुम पिशाचलीला ( क्रूरतापूर्ण क्रीडा ) की तरह
का खेल खेल रहे हो।
 
यहाँ किसी अपकारी की भर्त्सना की जा रही है । वेताललीलायसे में
क्यङ्लुप्ता वाचकलुप्तोपमा है । वेताललीलायसे से अभिप्राय है कि जैसे
वेताल अपने प्रत्युपकारियों का ही नाश करता है वैसे ही तुम भी अपने उप
कारी का ही अनिष्ट कर रहे हो ।
 
तान्त्रिक लोग अपने मन्त्रवल के प्रभाव से शव में जान डाल देते हैं । शव
जीवित होकर जब बोलने लगता है तो वह अपने जिलाने वाले तान्त्रिक की
ही जान लेने के लिए उतारू हो जाता है । वेताल की इस विशेषता को दृष्टि
में रखकर यहाँ यह बताया जा रहा है कि नीच लोग उपकर्ता का ही अपकार
करने के लिए उद्यत हो जाते हैं ।
 
While taking away the life of a person due to his inner
smile the person who had given life to you, who with his
strength had enabled to stand up, who had carried you on his
shoulders and who had done service to you-you are behaving
like a Vetāla. Brother ! you are at the top of grateful persons !
 
रज्ज्वा दिशः प्रवितताः सलिलं विषेण
 
खाता' मही हुतभुजा ज्वलिता वनान्ताः ।
व्याधा: पदान्यनुसरन्ति गृहीतचापा:
 
कं देशमाश्रयतु यूथपतिर्मुगारणाम् ॥६६॥
 
दिश: रज्ज्वा प्रवितताः, सलिलं विषेरण (मिश्रितम्) मही खाता,
वनान्ताः हुतभुजा ज्वलिताः, पदानि (च) गृहीतचापा: व्याधा: अनुसरन्ति
(अधुना) मृगारणां यूथपतिः कं देशम् प्राश्रयतु ?
 
अप्रतिविधेयास्वापत्सु युगपत् समन्ततः समागतास्वपि धीरो ह्यन्यत्र
जिगामिषुः स्वस्थान एव तिष्ठतीत्याह - रज्ज्वा दिश इति दिशो रज्ज्वा दाम्ना
प्रवितताः विस्तारिताः शृङ्खलिता इति यावत् । रज्ज्वेति एकवचनमुपलक्षरण-
परम् । सलिलं जलमपि विषेणाक्तम् । सम्मिश्रितम् । मही भूमिरपि खाता
गर्तादिरूपण विदारिता । वनान्ताः अन्तशब्दोऽत्र – स्वरूपवचनः । हुतभुजा
 
1. अ, म, ह; पार्क, म
 
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