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भल्लट शतकम्
 
ओहो ! बड़े आश्चर्य की बात है। क्योंकि इस कुटिल शिकारी का मौत के
फैले हुए मुख
के समान चढ़ी हुई डोरी वाला यह धनुष है और ज़हरीले सांपों
के समान (विषाक्त) बाण हैं तथा अर्जुन आदि को मात करने वाली
(धनुर्विद्या की) वह शिक्षा भी है, सब जगह नीचे (झुककर चलने वाली) चाल
है, भीतर क्रूरता (भरी) है (और) मुख में मनोहर गीत (है)। हाय ! इस (सब)
से मुझे ऐसा लग रहा है कि (यह) जंगल पशुओंों से रहित हो जायेगा ।
 
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यहाँ वन को पशुओं से रहित करने के लिए व्याध के धनुष बाण पर्याप्त कारण
हैं किन्तु उनकी सहायता के लिए अन्य अनेक कारणों के उपस्थित हो जाने से
यहाँ समुच्चय अलङ्कार है । यहाँ निर्मृग वन रूपी साध्य के लिए धनुष और
वारणादि साधन उपस्थित हुए हैं अत: अनुमानालङ्कार है । मन्ये वनं निर्मृगम्
में मन्ये शब्द तथा धनुरादि हेतुओं के प्रयोग से हेतृत्प्रेक्षा है । प्रस्तुत वाच्य
व्याध और वन के वृत्तान्त से प्रस्तुत व्यङ्ग्य बाहर से मधुर किन्तु भीतर से
कठोर दुष्टों से सताये जाने वाले सज्जन के वृत्तान्त की प्रतीति होने से यहाँ
प्रस्तुतप्रशंसा भी है। प्राशीविषाभा: में वाचकलुप्ता उपमा है ।
 
This bow is wide like the yawning mouth of Death, the
arrows are like the poisonous snakes, his skill excels that of
Arjuna and others, everywhere he stoops. Alas ! this fowler, a
rogue, has cruelty at heart and a sweet enchanting song on his
lips. I think, the forest will be bereft of all animals.
 
कोऽयं भ्रान्तिप्रकारस्तव पवन पदं लोकपादाहतीनां
तेजस्विव्रातसेव्ये नभसि नयसि यत्पांसुपूरं प्रतिष्ठाम् ।
यस्मिन्नु त्थाप्यमाने जननयनपथोपद्रवस्तावदास्तां
केनोपायेन साध्यो वपुषि कलुषतादोष एष त्वयैव ॥६५॥
 
(रे) पवन ! तव श्रयं कः भ्रान्तिप्रकार: ? यत् (त्वम्) लोकपादा-
हतीनां पदं पांसुपूरं तेजस्विव्रात सेव्ये नभसि प्रतिष्ठां नयसि । यस्मिन्
उत्थाप्यमाने जननयनपथोपद्रवः तावत् प्रास्ताम् ( किन्तु ) वपुषि एष
कलुषतादोषः त्वया एव केन उपायेन साध्य: (स्यात्) ।
 
1. म', म, ह; पादाहतानां अ, क
 
2. म1, म, ह; यस्मिन् अ, क
 
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