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भल्लटेशतकेम्
 
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( यह ) मर्यादा में ठहरा रहता है, निश्चय से यहीं चन्द्रमा ठहरा रहता है ।
यहीं देवता लोग इकट्ठे होकर पूर्णकाम (मनोरथ पूरे करने वाले ) होते हैं।
यहीं विष्णु स्वयं सोते हैं जिनकी नाभि से निकले कमल में ब्रह्मा का वास है ।
भाग्यदोष से वह शीतल समुद्र भी अपना पेट भरने को नीचाई को प्राप्त
होता है । नाभि में उत्पन्न कमल में शोभायमान ब्रह्मा से संवलित स्वयं विष्णु
भगवान् सोते हैं । दौर्भाग्य के कारण वह शीतल (महान्) समुद्र भी अपने पेट
को भरने के लिए नीचाई को प्राप्त होता है ।
 
यहाँ समुद्र का उत्कर्ष बताने के लिए ग्रावाणोऽत्र विभूषणम् एक ही कारण
पर्याप्त है परन्तु अन्य त्रिजगतः विभूषणम् आदि अनेक कारण खलेकपोतन्याय
से उत्कर्ष की सूचना दे रहे हैं इस कारण यहाँ समुच्चय अलङ्कार है । अप्रस्तुत
वाच्य अम्बुधि वृत्तान्त से प्रस्तुत व्यङ्ग्य गुरगवान् और सुजन होते हुए भी
दुर्दशा को प्राप्त व्यक्ति के वृत्तान्त की प्रतीति होने से यहाँ प्रस्तुतप्रशंसा
अलङ्कार भी है ।
 
There are huge rocks inside the sea. It is the ornament of
the three worlds. It maintains the propriety of conduct. The
moon resides in it. The gods gathered here are fully satisfied.
The god Viṣṇu from whose navel arises the lotus-the residing
place of Brahmā – sleeps on it. Even that ocean, due to fate,
has to go down to fill its belly.
 
अनीर्ष्या श्रोतारो मम वचसि चेद् वच्मि तदहं
स्वपक्षाद् भेतव्यं न तु बहु विपक्षात् प्रभवतः ।
तमस्याक्रान्ताशे कियदपि हि तेजोऽवयविनः
 
स्वशक्त्या भान्त्येते' दिवसकृति सत्येव' न पुनः ॥९० ॥
 
हे श्रोतारः ! मम वचसि (भवतां) नीर्ष्या चेत् तत् अहं वच्मि ।
स्वपक्षात् (एव) भेतव्यम् न तु प्रभवतः विपक्षात् बहु (भेतव्यम्) ।
तमसि हि आक्रान्ताशे (सति) एते तेजोऽवयविनः (नक्षत्रादयः) स्वशक्त्या
कियदपि भान्ति न पुनः दिवसकृति सति (भान्ति) ।
 
1. अ, ह, म; अनीर्ष्याः क, म
 
2. म ह; कियदिव अ, क, म
 
3. अ, म', म', ह; भासन्ते क
 
4 क, म, म±, ह; भान्त्येव अ
 
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