2023-02-27 22:42:58 by ambuda-bot
This page has not been fully proofread.
भल्लटशतकम्
बाह्ययैव शिष्टमुद्रया दुष्टा न विश्वनीयास्तथाप्यज्ञो लोकस्तस्यैवावश्य-
म्भावमाकाङ्क्षत इत्याह - वाताहारतयेति । विषधरैः । धरन्तीति धराः ।
मूलविभुजादिदर्शनात् कप्रत्ययः । विषस्य धरा विषधराः सर्पाः तैः कर्तृभिः ।
महीध्रादयो मूलविभुजादिदर्शनादिति वामनः । वाताहारतया वायुभक्षणत्वेन ।
आश्वास्य विश्वस्य विश्वासं जनयित्वा । जगत्समस्तभूतजातं निश्शेषं साकल्येन
नाशितम् । पुनरनन्तरम् । ते विषधराः अभ्रतोयकरिणकातीव्रव्रतैः अभ्रेभ्यो
मेघेभ्यः सकाशात् यास्तोयकणिका जलबिन्दवस्ताभिः । तीव्रं दुश्चरं व्रतं नियमो
येषां ते तथोक्ताः अभौमजलपायिन इत्यर्थः । तै बहिभि र्मयूर ग्रस्ताः भक्षिताः ।
ग्रस अदन इत्यस्मात् कर्मणि क्तप्रत्ययः । ते बहिरणोऽपि क्रूरचमूरुचर्मवसनैः
क्रूरं कठिनं चमूरो मृगस्य चर्मैव वसनं छादनं येषां ते तथोक्ताः । विश्वास-
जननाय मृगचर्मधारिग इत्यर्थः । तै लुब्धकै मृगयुभिः । मृगयुर्लुब्धकश्च स
इत्यमरः । क्षयं नाशं नीताः प्रापिताः नयतेः कर्मरिग क्तः । एवं दम्भस्य कैतवस्य
कपटस्येति यावत् । दम्भस्तु कैतवे कल्क इति विश्वः । स्फुरितं विजृम्भणम् ।
विदन्नपि जाल्मः अविमृश्यकारी । जाल्मोऽसमीक्ष्यकारी स्यादित्यमरः । जनो
लोकः । गुणान् वाताहारत्वादीन् । ईहते आकाङ्क्षते । बाह्यगुरणलेशदर्शनेनैव
निर्गुणमपि गुणिनं मन्यते इत्यर्थः ।
।
६६
वायु का हार करने के कारण संसार को विश्वास दिलाकर साँपों ने उसे
समाप्त कर दिया है । वर्षाजल की बूंदों के ही (पान का) कठिन व्रत धारण करने
वाले मयूरों ने उन साँपों को खा लिया है । चमूरू मृग के कठोर चर्म को
धारण करने वाले व्याघों ने उन मोरों का भी नाश कर दिया है । विवेकी
(मूर्ख) मनुष्य दम्भ के उदय को जानता हुआ भी इन गुणों को चाहता है
(अर्थात् धर्म का ढोंग रचने वाले इन धूत के कपट के व्यवहार से हानि उठा
कर भी वह वाताहारादि गुणों वाले व्यक्तियों में श्रद्धा रखता है।
यहाँ प्रस्तुत वाच्य, विषधर, मोर तथा व्याध वृत्तान्त से प्रस्तुत व्यङ्ग्य बाह्य
आडम्बर करने वाले ढोंगियों से ठगे जाने वाले व्यक्ति के वृत्तान्त की प्रतीति
होने से अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार है। दभ्भं विदन् अपि जाल्मो जनः गुणान्
ईहते – अर्थात् ढोंग को समझता हुआ भी मूर्ख व्यक्ति इन गुणों को चाहता है
यहाँ विरोध है क्योंकि वह ज्ञानी है इस रूप में परिहार हो जाता है— इस
प्रकार यहाँ विरोधाभास अलङ्कार है ।
आचार्य मम्मट ने काव्यप्रकाश 7.283 में इसे विध्ययुक्ततादोष के उदाहरण
के रूप में रखा है। वाताहार का व्रत सबसे कठिन है, उससे अभ्रतोयकणिका-
पान का व्रत सरल है और मृगचर्म के धारणमात्र का व्रत बहुत सरल है ।
CC-0 Shashi Shekhar Toshkhani Collection. Digitized by eGangotri
बाह्ययैव शिष्टमुद्रया दुष्टा न विश्वनीयास्तथाप्यज्ञो लोकस्तस्यैवावश्य-
म्भावमाकाङ्क्षत इत्याह - वाताहारतयेति । विषधरैः । धरन्तीति धराः ।
मूलविभुजादिदर्शनात् कप्रत्ययः । विषस्य धरा विषधराः सर्पाः तैः कर्तृभिः ।
महीध्रादयो मूलविभुजादिदर्शनादिति वामनः । वाताहारतया वायुभक्षणत्वेन ।
आश्वास्य विश्वस्य विश्वासं जनयित्वा । जगत्समस्तभूतजातं निश्शेषं साकल्येन
नाशितम् । पुनरनन्तरम् । ते विषधराः अभ्रतोयकरिणकातीव्रव्रतैः अभ्रेभ्यो
मेघेभ्यः सकाशात् यास्तोयकणिका जलबिन्दवस्ताभिः । तीव्रं दुश्चरं व्रतं नियमो
येषां ते तथोक्ताः अभौमजलपायिन इत्यर्थः । तै बहिभि र्मयूर ग्रस्ताः भक्षिताः ।
ग्रस अदन इत्यस्मात् कर्मणि क्तप्रत्ययः । ते बहिरणोऽपि क्रूरचमूरुचर्मवसनैः
क्रूरं कठिनं चमूरो मृगस्य चर्मैव वसनं छादनं येषां ते तथोक्ताः । विश्वास-
जननाय मृगचर्मधारिग इत्यर्थः । तै लुब्धकै मृगयुभिः । मृगयुर्लुब्धकश्च स
इत्यमरः । क्षयं नाशं नीताः प्रापिताः नयतेः कर्मरिग क्तः । एवं दम्भस्य कैतवस्य
कपटस्येति यावत् । दम्भस्तु कैतवे कल्क इति विश्वः । स्फुरितं विजृम्भणम् ।
विदन्नपि जाल्मः अविमृश्यकारी । जाल्मोऽसमीक्ष्यकारी स्यादित्यमरः । जनो
लोकः । गुणान् वाताहारत्वादीन् । ईहते आकाङ्क्षते । बाह्यगुरणलेशदर्शनेनैव
निर्गुणमपि गुणिनं मन्यते इत्यर्थः ।
।
६६
वायु का हार करने के कारण संसार को विश्वास दिलाकर साँपों ने उसे
समाप्त कर दिया है । वर्षाजल की बूंदों के ही (पान का) कठिन व्रत धारण करने
वाले मयूरों ने उन साँपों को खा लिया है । चमूरू मृग के कठोर चर्म को
धारण करने वाले व्याघों ने उन मोरों का भी नाश कर दिया है । विवेकी
(मूर्ख) मनुष्य दम्भ के उदय को जानता हुआ भी इन गुणों को चाहता है
(अर्थात् धर्म का ढोंग रचने वाले इन धूत के कपट के व्यवहार से हानि उठा
कर भी वह वाताहारादि गुणों वाले व्यक्तियों में श्रद्धा रखता है।
यहाँ प्रस्तुत वाच्य, विषधर, मोर तथा व्याध वृत्तान्त से प्रस्तुत व्यङ्ग्य बाह्य
आडम्बर करने वाले ढोंगियों से ठगे जाने वाले व्यक्ति के वृत्तान्त की प्रतीति
होने से अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार है। दभ्भं विदन् अपि जाल्मो जनः गुणान्
ईहते – अर्थात् ढोंग को समझता हुआ भी मूर्ख व्यक्ति इन गुणों को चाहता है
यहाँ विरोध है क्योंकि वह ज्ञानी है इस रूप में परिहार हो जाता है— इस
प्रकार यहाँ विरोधाभास अलङ्कार है ।
आचार्य मम्मट ने काव्यप्रकाश 7.283 में इसे विध्ययुक्ततादोष के उदाहरण
के रूप में रखा है। वाताहार का व्रत सबसे कठिन है, उससे अभ्रतोयकणिका-
पान का व्रत सरल है और मृगचर्म के धारणमात्र का व्रत बहुत सरल है ।
CC-0 Shashi Shekhar Toshkhani Collection. Digitized by eGangotri