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भल्लट शतकम्
 
६५
 
इत्यारिन रात ! तुम्हें धिक्कार है। अन्धकार रूपी जूड़े (बंधे बालों) को खोल-
कर (फैलाकर ) धारण करने (का) यह कार्य (तुमने) व्यर्थ ही प्रारम्भ किया
हुआ है । (तुम तो प्रसन्न हो इसके विपरीत (समस्त) लोगों के नेत्रों के स्वामी
चन्द्रमा के अकथनीय (शुभ) पतन के हो जाने पर स्तब्ध एवं मौन हुए
समुद्र आदि (बन्धु)जनों ने निश्चय ही प्रेम और सहानुभूति की चरम सीमा के
अनुरूप कार्य किया है ।
 
अभिप्राय यह है कि चन्द्रमा के ऊपर आपत्ति ने (उसके ग्रस्त होने पर
समुद्रादि बन्धुजन तो शान्त होकर बैठ गये हैं किन्तु रात्रि रूपी नायिका अपने
केश खोलकर प्रसन्नता प्रकट कर रही है।
 
:
 
यहाँ तिमिर में कबरी तथा रजनी में स्त्री का आरोप होने से रूपक है ।
यहाँ प्रस्तुत वाच्य रजनी शशी और समुद्र में क्रमश: नायिका, नायक और
बन्धु के व्यवहार का समारोप होने से समासोक्ति है । रजनी के कबरीबन्ध के
मोक्ष रूप कार्य के लिए स्त्रियों की क्रूरता रूप कारण की प्रतीति होने से
काव्यलिङ्ग अलङ्कार है तथा अप्रस्तुत वाच्य रजनी, चन्द्र और उदधि वृत्तान्त
से प्रस्तुत व्यङ्ग्य चन्द्रमा की विपत्ति, रात्रि की क्रूरता तथा समुद्रादि की
सहानुभूति के वृत्तान्त की प्रतीति होने से अप्रस्तुतप्रशंसा है ।
 
Oh, how cruel the women are? Fie upon you O rascal and
most wicked night. How uselessly you bear the lock of hair in
the form of darkness? Even the innert ocean and others have
behaved properly regarding the final part of their love (towards
moon) at the extremely painful departure of the moon which is
desired by the eyes of the people.
 
अहो गेहेनर्दी दिवस विजिगीषाज्वररुजा
 
प्रदीपोऽयं स्थाने ग्लपयति मृषा ऽमूनवयवान् ।
उदात्तस्वच्छन्दाक्रमरणहृतविश्वस्य तमसः
 
परिस्पन्दं' द्रष्टुं मुखमपि च किं सोढममुना ॥८२॥
अहो ! गेहेनर्दी अयं प्रदीप: स्थाने (तिष्ठन्) दिवस विजिगीषाज्वर-
1. अ, क, ह; प्रदीपः स्व मे
 
2. क, म1, ह; वृथा अ
 
3, अ, क; परिस्पष्टं म, मे, हृ
 
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