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है १ अर्थात् कोई फायदा नहीं है ।
 
मूर्खदातृपक्ष -
 
न तो बड़े वंश में उत्पन्न कुलीन पण्डितों के ग्रहण करने अर्थात् अपनाने
का सामर्थ्य है और न ही महान् गुणों वाले विद्वानों को इकट्ठे करने में श्रद्धा
है । माँगने पर (धनरूपी ) फलप्राप्ति की भी बात तक नहीं है ( इसलिए )
लोभी और ज्ञानी राजा के इस घर में (ठहरने से) क्या लाभ है ? अर्थात् कोई
लाभ नहीं है।
 
भल्लटशतकम्
 
यहाँ किसी चापार्थी और घनार्थी का विषाद श्लिष्ट शब्दों से बताया गया
है । वंश, गुण, मार्गरण, फल, लुब्धक और बाल इन अनेकार्थक शब्दों का
प्रयोग हुआ है । इन अनेकार्थक शब्दों का अभिधा द्वारा व्याघवालकपरक अर्थ
नियन्त्रित हो जाने पर व्यञ्जना द्वारा मूर्खदाता से सम्बद्ध दूसरा अर्थ प्राता है,
अतः यहाँ शाब्दी व्यञ्जना है। यदि व्याधबालकवृत्तान्त को अप्रस्तुत तथा
मूर्खदातृवृत्तान्त को प्रस्तुत मानें तो यहाँ प्रस्तुतप्रशंसा भी मानी जा सकती है ।
 
There is no use of visiting this house of the foolish hunter as
there is no arrow made of large bamboo, no use of a long bow
string and no talk of putting an iron point. Similarly, there
is no use of asking for something at the house of this foolish
and greedy person. He has no ability to recognize a person
of high birth; he has no regard for high merits and there is no
hope of getting any fruit from him.
 
तनुतृरणाग्रवृतेन हृतश्विरं क इव तेन न मौक्तिकशङ्कया ।
स जलबिन्दुरहो विपरीतद्ग्जगदिदं वयमत्र सचेतनाः ॥७२ ॥
 
तनुतृरगाग्रघृतेन तेन (जलबिन्दुना) कः इव मौक्तिकशङ्कया चिरं न
हृतः । अहो स जलबिन्दुः (आसीत् ) अहो, इदं जगत् ( तु) विपरीतद् क्
(विद्यते) अत्र वयम् (एव) सचेतना: (स्म:) ।
 
प्रायेण सर्वोऽपि पदार्थानां स्वरूपं न याथार्थ्येन ( जाना ) ति यदि कश्चिद्वेत्ति
स एव विवेकीत्याह- तनुतृणाग्रेति । तनुतृणाग्रघृतेन तनुना स्वल्पेन तृणाग्रेण
धृतः । तेन जलबिन्दुना मौक्तिकशङ्कया मुक्ता भ्रमेण क इव जनश्चिरमत्यर्थं हृतः
समाकृष्टी न भवति । तृणाग्रस्थित ( जलबिन्दुना ) सर्वस्यापि मौक्तिकभ्रमो
 
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