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भल्लटशतकम्
 
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यः स्वयमसेवाज्ञोऽपि पुनर्लुब्धादर्थमादित्सति स निकृष्टतम इत्याह – वृत्त
एवेति । हे घट हे कलश अज्ञोऽपि प्रतीयते । स्वार्थे कप्रत्ययः । शून्यकूपक एव
वृत्तः सञ्जातः । किञ्च तन्मुखस्य कूपस्य मुखात् सकाशात् । अम्बुकणिकां
प्रतीच्छता प्रतिजिघृक्षता त्वया । अधमस्य निकृष्टस्य चेष्टितं पारमुद्रितं
चिह्नितम् । ममैवैतदसाधारणं भवत्विति तत्त्वयाकारीत्यर्थः । अघम: स्वल्प-
लाभेन परितुष्यति ।
 
(जलरहित) कूएँ ! जो तुम्हारी ( थोड़ी सी जलप्राप्ति रूप ) कृपा
को भी लेने में असमर्थ रहा वह घड़ा ( तुम्हारे पास से) खाली ही लौट आया
है । उसके मुख पर लगे जलबिन्दुओं को भी छीनने की इच्छा करते हुए
तुमने अपनी कुचेष्टा पर मोहर लगा दी है अर्थात् तुमने ऐसा करके अपनी
नीचता सिद्ध एवं प्रमाणित कर दी है।
 
यहाँ घड़ा पानी प्राप्त करने रूप इष्टप्राप्ति के लिए अन्धकूप में गया है ।
किन्तु वहाँ उसे अपनी जलकणिका के छिन जाने रूप अनिष्ट की प्राप्ति हुई
है । अतः यहां इष्टार्थ के समुद्यम के बाद अनिष्ट की प्राप्ति होने से विषमालङ्कार
है । यहाँ प्रस्तुत वाच्य घटकूपवृत्तान्त से प्रस्तुत व्यङ्ग्य मूर्ख याचक तथा
कृपरण राजा के वृत्तान्त की प्रतीति होने से अप्रस्तुतप्रशंसा है ।
 
O blind well ! being unable to get your favour, the vessel has
been returned empty but while trying to snatch away the water
particles which were sticking to its mouth, you have put a seal
on your evil deeds.
 
तृरणमरणेमंनुजस्य च तत्त्वत' : किमुभयोविपुलाशयतोच्यते ।
तनुतृरणाग्रलवावयवैर्ययोरवसिते
 
ग्रहणप्रतिपादने ॥६६॥
 
तृणमणे: मनुजस्य च उभयोः विपुलाशयता तत्त्वतः किम् उच्यते,
ययोः ग्रहणप्रतिपादने तनुतृणाग्रलवावयवैः अवसिते ।
 
यो वाल्पमेव दत्त्वात्मानं श्लाघते तावुभौ न प्रशंसनीया वित्याह- तृणमणे-
र्मनुजस्य चेति । तृणमणेः प्रागुक्तलक्षणस्य मनुजस्याल्पप्रदातुश्चेत्युभयोस्तत्त्वतो
याथार्थेन । विपुलाशयता महामनस्विता । कि किमर्थमुच्यते । नेत्यर्थः । तदेवो-
पपादयति । ययोस्तृणमणिस्वल्पाशययोस्तनुतॄणाग्रलवावयवः तनुतृणानां सूक्ष्म-
तृणानां यान्यग्रारिण तेषां ये लवाः शकलास्तेषामेवैकदेशः करणः ग्रहणे प्रतिपादने
1. भ, हु; तद्द्वतः क म]
 
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