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भल्लटशतकम्
 
ऽपि नान्येभ्योऽवयवेभ्योऽपि चक्षुषोऽपकृष्टत्वं वक्तव्यमित्यर्थः । अहो आश्चर्यम् ।
येन यत्र कार्यं स तत्रैव पूज्यते नान्यत्रेति भावः ।
 
ये जो सुन्दर आकृति वाले घटादि पदार्थ (अथवा मनुष्यों के हाथ, पैर,
मुख आदिव) दिखलाई देते हैं इन (ों) की सफलता जिस (चक्षु) के
क्षणमात्र को विषय होने पर (अर्थात् दिखलाई देने के कारण ) होती है,
आश्चर्य है कि वह नेत्र इस समय इस प्रकाशहीन संसार में दूसरे सारे श्रृङ्गों
के समान कैसे हो गया है अथवा (बीके) समान (भी क्यों) नहीं है?
 

 
अभिप्राय यह है कि अन्धकार होने पर हाथ, पैर आदि अवयवों से तो काम
लिया जा सकता है परन्तु आँख ज़रा भी अपना काम नहीं कर पाती है ।
यहाँ अप्रस्तुत वाच्य चक्षुर्वृत्तान्त से किसी अत्यन्त कुशल महापुरुष निरालोक
लोक अर्थात् अन्धकार भरे जगत् से विवेकहीन स्वामी तथा हस्तादि अवयवों
से अक्षम पुरुष रूप अप्रस्तुत व्यङ्ग्य की प्रतीति होने से अप्रस्तुत प्रशंसा
अलङ्कार है ।
 
The fruitfulness of all these beautiful forms which are visible,
lies in being the object of eyes for a moment. Now when the
world is devoid of light, why these very eyes have been equalized
with other parts of the body or are not even equal to them ?
 
2
 
आहूतेषु विहङ्गमेषु मशको नायान् पुरो वार्यते
मध्येवारिधि' वा वसंस्तृरणमरिणर्धत्ते मरणीनां रुचम् ।
खद्योतोऽपि न कम्पते प्रचलितुं मध्येऽपि तेजस्विनां
घिक्सामान्यमचेतनं
 
प्रभुमिवानामृष्टतत्त्वान्तरम् ॥६६॥
 

 
विहङ्गमेषु आहूतेषु (सत्सु ) पुरः आयान् मशकः न वार्यते । मध्ये-
वारिधि वा वसन् तृणमरिणः मरणीनां रुचं धत्ते । तेजस्विनाम् अपि
मध्ये खद्योतः अपि प्रचलितुं न कम्पते । अनामृष्टतत्त्वान्तरम् अचेतनं
प्रभुम् इव अचेतनं सामान्यम् धिक् ।
 
यः कश्चिन्निर्गुणप्रकृतिर्गुणिष्वनुप्रवेशादेव स्वस्य गुणित्वं सेत्स्यति इति
 
1. म, म, ह; मध्ये वा धुरि वा क; सच्चिन्तामणि : कौस्तुभादिनिकटे काचो मणि-
स्तिष्ठति म अतिरिक्त पाठ
 
2. अ, क, भ; रुचिम् ह्
 
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