2023-02-27 22:42:47 by ambuda-bot
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भल्लटशतकम्
रे दन्दशूक यदयोग्यमपीश्वरस्त्वां
वात्सल्यतौ नयति नूपुरधाम सत्यम् ।
आवजिता लिकुलभंकृतिमूच्छितानि
कि शिजितानि' भवतः क्षमव कर्तुम् ॥ ५५ ॥
६७
रे दन्दशूक ! सत्यम्, यत् ईश्वरः अयोग्यम् अपि त्वाम् वात्सल्यतः
नूपुरधाम नयति । (किन्तु) इयता आवर्जतालिकुलझङ्कृतिमूच्छितानि
शिञ्जितानि कर्तुं कि भवतः क्षममेव ?
महता प्रभुणा विद्वत्समत्वेन सम्मानितोऽप्यज्ञः विद्वानिव वक्तुं न शक्नोती-
त्याह – रे दन्दशूक इति । रे दन्दशक भोः सर्प दुष्टोऽपि ध्वन्यते । ईश्वरस्त्रिलो-
चनः । यत् यस्मात् कारणात् । प्रावर्जितं तिरस्कृतम् । अलिकुलस्य भृङ्गसमूहस्य ।
झङ्कृतिर्मूच्छितम् झङ्कारोत्कर्षो यैस्तानि तथोक्तानि शिञ्जितानि भूषण-
ध्वनीन् । भूषणानां तु शिञ्जितमित्यमरः । किन्तु भवतस्तव क्षममेव कि समी-
चीनमेव किम् ? किशब्दोऽत्रप्रश्ने । प्रभुपरिग्रहेण समृद्धो भवति न विद्वान् वक्ता
वेति भावः ।
अरे विषधर साँप ! यह बात तो सच है कि महादेव जी योग्य होते हुए
भो तुम्हें प्रेम के कारण (ही) नूपुरों के स्थान अर्थात् अपने चरण में पहनते
हैं । ( परन्तु ) इतने से भौंरों के समूहों की सुन्दर भंकारों की तिरस्कारिणी (मधुर)
ध्वनियों को उत्पन्न करने की क्षमता क्या आपके भीतर है ?
यहाँ प्रस्तुत वाच्य सर्पमहादेववृत्तान्त से प्रस्तुत व्यङ्ग्य राजा द्वारा
सम्मानित मूर्ख के वृत्तान्त की प्रतीति होने से अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार है ।
इस श्लोक का अभिप्राय यह है कि कभी कभी राजा लोग मूर्ख को भी विद्वानों के
बराबर सम्मान तो दे देते हैं किन्तु अवसर आने पर वह अल्पज्ञ व्यक्ति विद्वानों
की भाँति प्रभावशाली भाषरण नहीं दे पाता ।
1. अ, म, ह; हे क
2. ह; तदयोग्यम् अ, क, म
3. क, ह; वाल्लभ्यतो प्र, म
4. अ, क, ह; आवर्तितालि म
5. क, म, हः शिक्षितानि म
6. म; भवता अ, क, ह
7, म, ह; क्षममेव वक्तुम् अ, क्षमतेऽत कर्तुम् क
CC-0 Shashi Shekhar Toshkhani Collection. Digitized by eGangotri
रे दन्दशूक यदयोग्यमपीश्वरस्त्वां
वात्सल्यतौ नयति नूपुरधाम सत्यम् ।
आवजिता लिकुलभंकृतिमूच्छितानि
कि शिजितानि' भवतः क्षमव कर्तुम् ॥ ५५ ॥
६७
रे दन्दशूक ! सत्यम्, यत् ईश्वरः अयोग्यम् अपि त्वाम् वात्सल्यतः
नूपुरधाम नयति । (किन्तु) इयता आवर्जतालिकुलझङ्कृतिमूच्छितानि
शिञ्जितानि कर्तुं कि भवतः क्षममेव ?
महता प्रभुणा विद्वत्समत्वेन सम्मानितोऽप्यज्ञः विद्वानिव वक्तुं न शक्नोती-
त्याह – रे दन्दशूक इति । रे दन्दशक भोः सर्प दुष्टोऽपि ध्वन्यते । ईश्वरस्त्रिलो-
चनः । यत् यस्मात् कारणात् । प्रावर्जितं तिरस्कृतम् । अलिकुलस्य भृङ्गसमूहस्य ।
झङ्कृतिर्मूच्छितम् झङ्कारोत्कर्षो यैस्तानि तथोक्तानि शिञ्जितानि भूषण-
ध्वनीन् । भूषणानां तु शिञ्जितमित्यमरः । किन्तु भवतस्तव क्षममेव कि समी-
चीनमेव किम् ? किशब्दोऽत्रप्रश्ने । प्रभुपरिग्रहेण समृद्धो भवति न विद्वान् वक्ता
वेति भावः ।
अरे विषधर साँप ! यह बात तो सच है कि महादेव जी योग्य होते हुए
भो तुम्हें प्रेम के कारण (ही) नूपुरों के स्थान अर्थात् अपने चरण में पहनते
हैं । ( परन्तु ) इतने से भौंरों के समूहों की सुन्दर भंकारों की तिरस्कारिणी (मधुर)
ध्वनियों को उत्पन्न करने की क्षमता क्या आपके भीतर है ?
यहाँ प्रस्तुत वाच्य सर्पमहादेववृत्तान्त से प्रस्तुत व्यङ्ग्य राजा द्वारा
सम्मानित मूर्ख के वृत्तान्त की प्रतीति होने से अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार है ।
इस श्लोक का अभिप्राय यह है कि कभी कभी राजा लोग मूर्ख को भी विद्वानों के
बराबर सम्मान तो दे देते हैं किन्तु अवसर आने पर वह अल्पज्ञ व्यक्ति विद्वानों
की भाँति प्रभावशाली भाषरण नहीं दे पाता ।
1. अ, म, ह; हे क
2. ह; तदयोग्यम् अ, क, म
3. क, ह; वाल्लभ्यतो प्र, म
4. अ, क, ह; आवर्तितालि म
5. क, म, हः शिक्षितानि म
6. म; भवता अ, क, ह
7, म, ह; क्षममेव वक्तुम् अ, क्षमतेऽत कर्तुम् क
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