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भल्लटशतकम्
 
है वह गन्ना यदि अत्यधिक बुरे खेत में पड़कर बढ़ता नहीं है तो क्या गन्ने का
दोष है, और निर्गुण ऊसरभूमि का दोष नहीं है ?
 
यह श्लोक आनन्दवर्धन की प्रसिद्ध रचना ध्वन्यालोक (1,14 वृत्तिभाग )
में भी मिलता है । यहाँ इक्षु की जो विशेषतायें बतलाई हैं, वही विशेषतायें
श्लेष के द्वारा सज्जन में भी प्रतीत होती हैं । सज्जन भी दूसरों के लिए कष्ट
सहता है ( पीडामनुभवति ) भङ्गेऽपि मधुरः - अपमान होने पर भी मधुरभाषी
बना रहता है । उसका क्रोधादि विकार भी सबको अच्छा लगता है । अक्षेत्र-
पतित - अपने पद के अनुरूप स्थान न मिलने पर उसको पदवृद्धि नहीं होती ।
अगुणायाः मरुभुवः का अर्थ निर्गुण स्वामी है । इस प्रकार इस श्लोक में इक्षु-
परक और सज्जनपरक दो अर्थ होने के कारण श्लेषालङ्कार है । भङ्गेऽपि
मधुरः तथा विकारोऽप्यमित: में विरोध की प्रतीति होने से विरोधाभास अलङ्कार
है । यहाँ प्रस्तुत इक्षुवृत्तान्त से अप्रस्तुत सज्जनवृत्तान्त की प्रतीति समान गुणों
के कारण हो रही है, इस कारण यहाँ समात्समा प्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार है ।
 
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The sugarcane which bears crushing suppression for the
sake of others, which retains sweetness even after being cut,
whose deformation in the form of raw suger is relished by all,
if such a sugercane could not grow due to its being sown on a
barren land, was that the fault of sugercane and not that of the
worthless desert ?
 
आमा कि फलभारनम्र शिरसो रम्या किमूष्मच्छिदः
सच्छाया: कदलीद्रुमाः सुरभयः किं पुष्पिताश्चम्पकाः ।
एतास्ता निरवग्रहोग्रकरभोल्लीढार्धरूढाः
शम्यो भ्राम्यसि मूढ निर्मरुति कि मिथ्यैव मर्तु मरौ ॥५४॥
 
पुनः
 
इह कि फलभारनप्रशिरसः रम्या आम्रा: ( सन्ति ) ? किम्
उष्मच्छिदः सच्छायाः कदलीद्रुमाः ( सन्ति ) ? कि पुष्पिता: सुरभयः
चम्पका: ( सन्ति ) पुनः एताः ताः निरवग्रहोग्रकरभोल्लीढार्धंरूढाः
शम्य: (सन्ति हे) मूढ ! निर्मरुति मरो मतुं मिथ्यैव कि भ्राम्यसि ?
 
दातारं परित्यज्य लुब्धं यस्सेवते तं प्रत्याह – ः किमिति । हे मूढ इह
 
1. क, ह; भोल्लीका: प्ररूढाः पुनः अ; भोल्लीढावरूद्धाः पुनः म
 
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