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भल्लटशतकम्
असन्निहितस्याविशेषज्ञस्यायाचकस्याल्पाशयस्य प्रभूतप्रदाय्येव प्रदाता न
वितरति इत्याह - दूरे कस्यचिदिति । एष चिन्तामरिणः कस्यचिदकृत पुण्यस्य
दूरे तिष्ठति । प्रकृतधीरबुद्धिमान् कश्चित्समीपस्थोऽप्यस्य चिन्तामणेरन्तरं
विशेषगुणं न वेत्ति । अयं चिन्तितानि दातु शक्नोतीत्येव न जानाति । मानी
अभिमानी कोऽपि पुरुषो न याचते । याच्ञाभङ्गभयेनेति भावः । अल्पाशयो
अल्पबुद्धि कोऽपि कश्चिदल्पं तुच्छं मृगयते । वदान्यं विहाय लुब्धं याचितुम-
विष्यत इति भावः । इत्यमुक्तप्रकारेण प्रार्थिते याच्ञायां सत्यामपि यदानं
वितरणं तदेव दुर्व्यसनमभिनिवेश: । कदर्यस्तु ...
सी तथोक्तः । तस्य चिन्तामणेश्चिन्ता रत्नस्यास्यानं पुणदुस्तरेषु अनंपुरणेना-
प्रावीण्येनापि दुस्तरेषु दुर्ज्ञेयेषु निकषस्थानेषु तारतम्यविमर्शस्थलेषु' । उज्ज्वला
रमणीया औदार्यरेखा दातृत्वचिह्नम् । न जाता नाजायत । दातारोऽपि बहवो
दूरस्थादिभ्यो न ददति तद्विपरीतेभ्यस्तु ददत्येवेति भावः ।
(सबकी कामनाओं को पूरा करने वाली) यह चिन्तामणि किसी से दूर
(होती) है (तो) कोई दूसरा बुद्धिहीन व्यक्ति (समीप रहकर) इसके ( दानशील)
विशेष गुण को नहीं जानता है। अन्य कोई दुरभिमानी ( इससे) याचना नहीं
करता है तो दूसरा कोई तुच्छहृदय पुरुष इससे थोड़ा सा माँगता है। इस
प्रकार याचना होने पर ही देने के बुरे स्वभाव वाली चिन्तामणि की उदारता
की रेखा ( लोगों की) मूर्खता ( रूपी मलिनता) के कारण दुर्ज्ञेय परीक्षारूपी
कसौटी पत्थर पर स्पष्ट नहीं हो पाई है अर्थात् चिन्तामणि का वास्तविक दातृ-
स्वरूप विभिन्नमति पुरुषों को अपनी अपनी सीमा के कारण स्पष्टतया समझ
में नहीं आता है ।
यहाँ प्रस्तुत चिन्तामणिवृत्तान्त से अप्रस्तुत दानी पुरुषवृत्तान्त की प्रतीति
होने से प्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार है। जैसे चिन्तामणि की उदारता का गुण दूर
रहने पर भी ज्ञात नहीं हो पाता और पास रहने पर भी उसकी कीमत नहीं
पता चलती वैसे ही दानी राजा दूर रहने वालों को भी दान नहीं दे पाता और
पास रहने वालों को उसके दानी रूप का ज्ञान नहीं होता है । यहाँ दूरता और
समीपता आदि को चिन्तामणि की उदारता को न जानने का कारण बताया
गया है इसलिए यहाँ काव्यलिङ्ग अलङ्कार भी है ।
The desire yielding stone cintāmaņi is out of sight for some,
1. म2; स्थानेषु ह
CC-0 Shashi Shekhar Toshkhani Collection. Digitized by eGangotri
भल्लटशतकम्
असन्निहितस्याविशेषज्ञस्यायाचकस्याल्पाशयस्य प्रभूतप्रदाय्येव प्रदाता न
वितरति इत्याह - दूरे कस्यचिदिति । एष चिन्तामरिणः कस्यचिदकृत पुण्यस्य
दूरे तिष्ठति । प्रकृतधीरबुद्धिमान् कश्चित्समीपस्थोऽप्यस्य चिन्तामणेरन्तरं
विशेषगुणं न वेत्ति । अयं चिन्तितानि दातु शक्नोतीत्येव न जानाति । मानी
अभिमानी कोऽपि पुरुषो न याचते । याच्ञाभङ्गभयेनेति भावः । अल्पाशयो
अल्पबुद्धि कोऽपि कश्चिदल्पं तुच्छं मृगयते । वदान्यं विहाय लुब्धं याचितुम-
विष्यत इति भावः । इत्यमुक्तप्रकारेण प्रार्थिते याच्ञायां सत्यामपि यदानं
वितरणं तदेव दुर्व्यसनमभिनिवेश: । कदर्यस्तु ...
सी तथोक्तः । तस्य चिन्तामणेश्चिन्ता रत्नस्यास्यानं पुणदुस्तरेषु अनंपुरणेना-
प्रावीण्येनापि दुस्तरेषु दुर्ज्ञेयेषु निकषस्थानेषु तारतम्यविमर्शस्थलेषु' । उज्ज्वला
रमणीया औदार्यरेखा दातृत्वचिह्नम् । न जाता नाजायत । दातारोऽपि बहवो
दूरस्थादिभ्यो न ददति तद्विपरीतेभ्यस्तु ददत्येवेति भावः ।
(सबकी कामनाओं को पूरा करने वाली) यह चिन्तामणि किसी से दूर
(होती) है (तो) कोई दूसरा बुद्धिहीन व्यक्ति (समीप रहकर) इसके ( दानशील)
विशेष गुण को नहीं जानता है। अन्य कोई दुरभिमानी ( इससे) याचना नहीं
करता है तो दूसरा कोई तुच्छहृदय पुरुष इससे थोड़ा सा माँगता है। इस
प्रकार याचना होने पर ही देने के बुरे स्वभाव वाली चिन्तामणि की उदारता
की रेखा ( लोगों की) मूर्खता ( रूपी मलिनता) के कारण दुर्ज्ञेय परीक्षारूपी
कसौटी पत्थर पर स्पष्ट नहीं हो पाई है अर्थात् चिन्तामणि का वास्तविक दातृ-
स्वरूप विभिन्नमति पुरुषों को अपनी अपनी सीमा के कारण स्पष्टतया समझ
में नहीं आता है ।
यहाँ प्रस्तुत चिन्तामणिवृत्तान्त से अप्रस्तुत दानी पुरुषवृत्तान्त की प्रतीति
होने से प्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार है। जैसे चिन्तामणि की उदारता का गुण दूर
रहने पर भी ज्ञात नहीं हो पाता और पास रहने पर भी उसकी कीमत नहीं
पता चलती वैसे ही दानी राजा दूर रहने वालों को भी दान नहीं दे पाता और
पास रहने वालों को उसके दानी रूप का ज्ञान नहीं होता है । यहाँ दूरता और
समीपता आदि को चिन्तामणि की उदारता को न जानने का कारण बताया
गया है इसलिए यहाँ काव्यलिङ्ग अलङ्कार भी है ।
The desire yielding stone cintāmaņi is out of sight for some,
1. म2; स्थानेषु ह
CC-0 Shashi Shekhar Toshkhani Collection. Digitized by eGangotri