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मल्लट शतकम्
 
तृणस्य लवमेकदेशं गृह्णन् स्वीकुर्वन्नपि न लज्जते न हीणो भवति । प्रभूत-
प्रदानेनापि न वदान्य: क्लेशयति । कदर्यस्तु प्रसह्यास्य । हररोऽपि न लज्जते
इत्युभयोर्भेद इति भावः ।
 
किस (मूर्ख) ब्रह्मा ने चिन्तामणि और तृणमणि दोनों को समान रूप से
मणि होने का गर्व दे दिया है १ एक (चिन्तामणि) तो याचकों को उनके
भीष्ट पदार्थ देते हुए कभी खिन्न नहीं होता और दूसरा ऐसा है कि उसे टूटे
तिनके के टुकड़े को लेते हुए भी लज्जा नहीं आती।
 
यहाँ प्रस्तुत वाच्य चिन्तामणि और तृरणमरिण वृत्तान्त से प्रस्तुत व्यङ्ग्य
उदार और कृपरण व्यक्ति के वृत्तान्त की प्रतीति होने से अप्रस्तुत प्रशंसा
अलङ्कार है । चिन्तामरिण और तृणमणि में विरुद्धधर्मता बताई है । चिन्तामरिण
तो अपना सब कुछ दे देता है और तृणमरिण दूसरों की तिनके जैसी तुच्छ
वस्तु को भी ले लेता है। इस कारण यहाँ विष्मालङ्कार भी है। चिन्तामणि लोगों
के अभिलषित पदार्थों को प्रदान करने वाली मणि मानी जाती है और
तृणमणि तिनके को पकड़ लेने वाला विशेष प्रकार का पत्थर होता है ।
 
By which creater the equal title of jewel has been bestowed
upon both cintāmaņi and tṛṇamani? While the one is not tired
of giving desired objects to the needy ones, the other is not
ashamed of accepting even a small piece of straw.
 
दूरो कस्यचिदेष कोऽप्यकृतधीनॅवास्य वेत्त्यन्तरं
 
मानी कोऽपि न याचते मृगयते कोप्यल्पमल्पाशयः ।
इत्थं प्रार्थितदानदुर्व्यसनिनो नौदार्य रेखोज्ज्वला
 
'जातानपुरगदुस्तरेषु निकषस्थानेषु चिन्तामणेः ॥५२॥
 
एष चिन्तामरिणः कस्यचिद् दूरे (विद्यते) कोऽपि प्रकृतधीः
( समीपस्थः सन् ) अस्य अन्तरं न वेत्ति । कः अपि मानी न याचते, कः
अपि अल्पाय: अल्पं मृगयते । इत्थं प्रार्थितदान दुर्व्यसनिनः चिन्तामणेः
अनंपुणदुस्तरेषु निकषस्थानेषु श्रौदार्यरेखा उज्ज्वला न जाता ।
 
1. म2; प्रसह्य त्वस्य ह
2. अ, म, ह; कस्यचिदेव क
 
3.
 
4.
 
अ, म ह; प्यल्पमूल्याशय: क
ह, म; जाता नैपुणा अ, क
 
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