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भल्लटशतकम्
 
४६
 
(लाभ) हो पाया है ? देखो तो इसकी वही पुरानी प्राकृति दोबारा पहले की
तरह सूखी और जली जली हो गई है ।
 
यहाँ प्रस्तुत वाच्य जलदवृत्तान्त से प्रस्तुत व्यङ्ग्य कुपात्र और सुपात्र
का विवेक न करने वाले अविवेकी दानशील व्यक्ति के वृत्तान्त की प्रतीति होने
से अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार है ।
 
O cloud! leave aside the benefits which a thirsty antelope (or
an ox or deer) or a bird or any other animal would have
enjoyed by your rain. What gain could this utmost undeserving
baren land find from your rain ? Behold! it retains the same old
dry and burnt appearance.
 
सन्त्यज्य पानाचमनोचितानि तोयान्तराण्यस्य सिसेविषोस्त्वाम् ।
निजैर्न, जिह्वेषि जलैर्जनस्य जघन्यकार्योपथिकैः पयोधे ॥४३॥
 
(हे) पयोधे ! पानाचमनोचितानि तोयान्तराणि सन्त्यज्य त्वां
सिषेविषोः अस्य जनस्य जघन्यकार्योपयिकैः निर्ज: जलैः त्वं (किं) न
जिह्वेषि ?
 
योऽत्यन्तसमृद्धोऽपि न कस्याप्युपकरोति तन्निराकरणायाह – सञ्चिन्त्येति ।
हे पयोधे समुद्र ! पानाचमनयोरुचितानि योग्यानि तोयान्तराणि अन्यानि जलान
सञ्चिन्त्य विचार्य त्वां सिषेविषोस्सेवितुमिच्छोरस्य जनस्य जघन्ये निकृष्टे कार्ये ।
गुदप्रक्षालनादौ । औपयिकंरुपायभूतैरुपकारकैरिति यावत् । विनयादि-
पाठाठक् । उपायाद्धस्वश्चेति ह्रस्वः । निजैः स्वकीयैर्जलैः न जिह्रेषि न
लज्जसे । लज्जायामपेयजलवत्ता हेतुरित्यनुसन्धेयम् । सतां सत्कर्मानहं दुष्टस्य
दुर्घनसन्दोहं धिगिति भावः ।
 
(हे) समुद्र ! पीने और कुल्ला करने योग्य दूसरे (कूपादि के) जलों को
छोड़कर तुम्हारे (जल के) सेवन की अभिलाषा रखने वाले इस मनुष्य के सामने
निकृष्ट कार्यों को सम्पन्न करने वाले (अर्थात् गुदादि को ही धोने वाले अपने
इन) जलों से तुम (क्यों) लज्जित नहीं हो रहे हो ?
 
1. क; सञ्चिन्त्य अ, म1, ह
2. अ, म, ह; पयोद क
 
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