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भल्लटशतकम्
 
यात्री ने यह सोचकर ताल वृक्ष का आश्रय लिया कि इसकी जड़ें अच्छी हैं,
(अच्छे वंश का व्यक्ति है), ऊँचाई प्रसिद्ध है ( उन्नति बहुत है), घनी छाया है
( सुन्दर कान्ति है), ठीक रास्ते पर खड़ा है (सदाचारमार्गस्थित है), सज्जनों से
भोगे जाने योग्य है (सज्जनों से सेवा किए जाने योग्य है) । मनुष्य की इतनी
शक्ति है। यहाज फल दे या कल या जल्दी या देर से यह जानने में तो
ब्रह्मा समर्थ हो नहीं है ।
 
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यहाँ सन्मूल, उन्नति, छाया और सत्पथ इन शब्दों के द्वयर्थक होने से इले
है । अप्रस्तुत वाच्य तालफलवृत्तान्त से प्रस्तुत व्यङ्ग्य दैवाधीन सत्प्रभुसेवा फल
की प्रतीति होने से श्लेषमूलक अप्रस्तुतप्रशंसा है।
 
The traveller resorted to the palm tree thinking that its roots
are good, height is sufficient, shade is dense, stands on a good
path and is worthy of being enjoyed by good people but whether
it will grant fruit today or tomorrow, early or very late, even
Brahma is not capable to know it.
 
त्वन्मूले पुरुषायुषं गतमिदं देहेन संशुष्यता
क्षोदीयांसमपि क्षरणं परमतः शक्तिः कुतः प्रारिणतुम ।
तत्स्वस्त्यस्तु विवृद्धिमेहि महतीमद्यापि का नस्त्वरा
कल्यारिगन् फलिताऽसि तालविटपिन् पुत्रेषु पौत्रेषु वा ॥ ३६॥
 
हे ताल विटपिन् ! त्वन्मूले संशुष्यता देहेन (सह ) इदं पुरुषायुषं गतम् ।
अतः परं क्षोदियांसम् अपि क्षरणं प्रारिणतुं शक्तिः कुतः ? तत् (ते) स्वस्ति
प्रस्तु, महतीं विवृद्धिम् एहि ? अद्यापि नः का त्वरा ? हे कल्याणिन,
पुत्रेषु पौत्रेषु वा फलितासि ।
 
कश्चित् बहुकालकृतयाप्यफलया लुब्धसेवया व्यथितान्तःकरण -
त्वन्मूल इति । तालविटपिन् ! तालद्रुम ! त्वन्मूले ग्रघ्नप्रदेशे अन्यत्र पादमूले
च । संशुष्यता अनशनादिना कार्यं लभता गात्रेण शरीरेण सहेदं पुरुषायुषं
महीयान् कालः । अचतुरादिसूत्रेण पुरुषायुषशब्दोऽकारान्तः । साधु गतं नीतम् ।
अतः परमस्मादुपरि क्षोदीयांसमत्यल्पमपि क्षणं कालम् । कालाठवनोरत्यन्त-
संयोग इति द्वितीया । जीवितुं प्राणितुम् । शक्ति: सामर्थ्यम् । कुतः नास्तीत्यर्थः ।
 
1. अ, म; कल्याण: क, ह
 
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