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अभार्यो लभते भार्या विनीतां सुसृतां सतीम् ।
सुशीलां सुन्दरीं रम्यामतिसुप्रियवादिनीम् ॥ १२ ॥
पुत्रपौत्रवतीं शुद्धां कुलजां कोमलांवराम् ।
अपुत्रो लभते पुत्रं वैष्णवं चिरजीवनम् ॥ १३ ॥
परमैर्ययुक्तं च विद्यावंतं यशस्विनम् ।
भ्रष्टराज्यो लभेद्राज्यं भ्रष्टश्रीर्लभते श्रियम् ॥ १४ ॥
हतबन्धुर्लभेद्धु' धनभ्रष्टो धनं लभेत् ।
कीर्तिहीनो लभेत्कीर्ति प्रतिष्ठा च लभेद् धुवम् ॥ १५ ॥
सर्वमंगलदस्तोत्रं शोकसंतापनाशनम् ।
हर्षानंदकरंशश्वद्धर्ममोक्ष सुहृत्प्रदम् ॥ १६ ॥
 
स्त्री हीन मनुष्य विनीत और पुत्र वाली, सती, सुशील, सुंदर,
रम्य और मीठा बोलनेवाली, शुद्ध, कुलीन, कोमल वस्त्रों वाली स्त्री.
पाता है और पुत्र हीन चिरजीवी वैष्णव पुत्र पाता है। जो परम ।
ऐश्वर्य युक्त, विद्यावाला और यशस्वी हो । भ्रष्ट राज्य मनुष्य
राज पाता है और भ्रष्ट श्री अपनी खोई श्री को पा जाता है।
भाई हीन भाई की और धन हीन धन पाता है। कीर्ति हीन कीर्ति
और प्रतिष्ठा को पाता है। यह सर्व मंगलों को देनेवाला स्तोत्र
शोक संतापका नाश करता है, हर्ष और आनंद बढ़ाता है, धर्म,
मोक्ष और मित्रों को देता है । १२-१३-१४-१५-१६ ॥
 
इति श्रीदेवकृतं लक्ष्मीस्तोत्रं समाप्तम्
 
CC-0. Mumukshu Bhawan Varanasi Collection. Digitized by eGangotri