संस्कृत-हिन्दी कोश वामन शिवराम आप्टे ।। श्रीः ।। विद्याभवन प्राच्यविद्या ग्रन्थमाला १७३ संस्कृत-हिन्दी कोश ( दस हजार नये शब्दों तथा लेखक द्वारा संकलित छन्द एवं साहित्यिक तथा भारत के प्राचीन इतिहास में प्राप्त भौगोलिक नामों के परिशिष्टों सहित ) लेखक वामन शिवराम आप्टे चौखम्बा विद्याभवन वाराणसी प्रकाशक चौखम्बा विद्याभवन ( भारतीय संस्कृति एवं साहित्य के प्रकाशक तथा वितरक ) चौक ( बैंक ऑफ बड़ोदा भवन के पीछे ) पो. बा. नं. 1069, वाराणसी 221001 दूरभाष: 2420404 ई-मेल : cvbhawan@yahoo.co.in © सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन पुनर्मद्रित संस्करण : 2012 मूल्य : 350.00 अन्य प्राप्तिस्थान चौखम्बा पब्लिशिंग हाउस 4697/2, भू-तल ( ग्राउण्ड फ्लोर ) गली नं. 21-ए, अंसारी रोड दरियागंज, नई दिल्ली 110002 दूरभाष: 23286537 चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान 38 यू. ए. बंगलो रोड, जवाहर नगर पो. बा. नं. 2113 दिल्ली 110007 दूरभाष: 23856391 चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन के. 37/117 गोपालमन्दिर लेन पो. बा. नं. 1129, वाराणसी 221001 दूरभाष : 2335263 दो शब्द प्रस्तुत 'संस्कृत-हिन्दी कोश' श्री वी० एस० आप्टे की विख्यात 'दी स्टुडेंट्स संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी' का राष्ट्रभाषा हिन्दी में सर्व प्रथम अनुवाद है । आप्टे की 'डिक्शनरी' का छात्रवृन्द में सर्वत्र सर्वाधिक मान है, इसी से इसकी उपादेयता निर्विवाद और सर्वसम्मत है । प्रस्तुत हिन्दी-संस्करण में तीन विशेषताएँ हैं। एक तो प्रायः सभी मूल शब्दों की व्युत्पत्ति इसमें दे दी गई है — जिससे यह छात्रों के लिए और भी अधिक उपयोगी बन गया है। दूसरे विद्यार्थियों की सामान्य जानकारी के लिए उपसर्ग और प्रत्यय का संक्षिप्त दिग्दर्शन करा दिया गया है। तीसरी बात यह है कि इस कोश के अन्त में परिशिष्ट के रूप में शब्दों का नया संकलन जोड़ दिया गया है। इसीलिए यह कोश अब न केवल छात्रवृन्द के लिए ही उपादेय है अपितु संस्कृत भाषा के सभी प्रेमी पाठकों के लिए अपरिहार्य हो गया है । अनुवादक भूमिका [ कोशकार का प्रथम प्राक्कथन] यह संस्कृत-इंग्लिश कोश जो मैं आज जनसाधारण के सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ, न केवल विद्यार्थी की चिर-प्रतीक्षित आवश्यकता को पूरा करता है, अपितु उसके लिए यह सुलभ भी है । जैसा कि इसके नाम से प्रकट है यह हाई स्कूल अथवा कालिज के विद्यार्थियों की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तैयार किया गया है। इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर मैंने वैदिक शब्दों को इसमें सम्मिलित करना आवश्यक नहीं समझा । फलतः मैं इस विषय में वेद के पश्चवर्ती साहित्य तक ही सीमित रहा । परन्तु इसमें भी रामायण, महाभारत पुराण, स्मृति, दर्शनशास्त्र, गणित, आयुर्वेद, न्याय, वेदांत, मीमांसा, व्याकरण, अलंकार, काव्य, वनस्पति विज्ञान, ज्योतिष, संगीत आंदि अनेक विषयों का समावेश हो गया है। वर्तमान कोशों में से बहुत कम कोशकारों ने की विविध शाखाओं के तकनीकी शब्दों की व्याख्या प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। हाँ, वाचस्पत्य में इस प्रकार के शब्द पाये जाते हैं, परन्तु वह भी कुछ अंशों में दोषपूर्ण है। विशेष रूप से उस कोश से जो मुख्यतः विश्वविद्यालय के छात्रों के लिए ही तैयार किया गया हो, ऐसी आशा नहीं की जा सकती। यह कोश तो मुख्य रूप से गद्यकथा, काव्य, नाटक आदि के शब्दों तक ही सीमित है, यह बात दूसरी है कि व्याकरण, न्याय, विधि, गणित आदि के अनेक शब्द भी इसमें सम्मिलित कर लिये गये हैं। वैदिक शब्दों का अभाव इस कोश की उपादेयता को किसी प्रकार कम नहीं करता, क्योंकि स्कूल या कालिज के अध्ययन काल में विद्यार्थी की जो सामान्य आवश्यकता है उसको यह कोश भलीभांति- बल्कि कई अवस्थाओं में कुछ अधिक ही पूरा करता है । कोश के सीमित क्षेत्र के पश्चात् इसमें निहित शब्द योजना के विषय में यह बताना सर्वथा उपयुक्त है कि कोश के अन्तर्गत, शब्दों के विशिष्ट अर्थों पर प्रकाश डालने वाले उद्धरण, संदर्भ उन्हीं पुस्तकों से लिये गये हैं जिन्हें विद्यार्थी प्रायः पढ़ते हैं । हो सकता है कुछ अवस्थाओं में ये उद्धरण आवश्यक प्रतीत न हों, फिर भी संस्कृत के विद्यार्थी को, विशेषतः आरंभकर्ता को उपयुक्त पर्यायवाची या समानार्थक शब्द ढूढ़ने में ये निश्चय ही उपयोगी प्रमाणित होंगे । दूसरी ध्यान देने योग्य इस कोश की विशेषता यह है कि अत्यन्त आवश्यक तकनीकी शब्दों की, विशेषतः न्याय, अलंकार, और नाट्यशास्त्र के शब्दों की — व्याख्या इसमें यथा स्थान दी गई है। उदाहरण के लिए देखो — अप्रस्तुत प्रशंसा, उपनिषद्, सांख्य, मीमांसा, स्थायिभाव, प्रवेशक, रस, वार्तिक आदि । जहाँ तक अलंकारों का सम्बन्ध है, मैंने मुख्य रूप से काव्य प्रकाश का ही आश्रय लिया है— यद्यपि कहीं-कहीं चन्द्रालोक, कुवलयानन्द और रसगंगाधर का भी उपयोग किया है । नाट्यशास्त्र के लिए साहित्य दर्पण को ही मुख्य समझा है । इसी प्रकार महत्त्वपूर्ण शब्दचय, वाग्धारा, लोकोक्ति अथवा विशिष्ट अभिव्यंजनाओं को भी यथा स्थान रक्खा है, उदाहरण के लिए देखो — गम्, सेतु, हस्त, मयूर, दा, कृ आदि । आवश्यक शब्दों से सम्बद्ध पौराणिक उपाख्यान भी यथा स्थान दिये हैं उदाहरणतः देखो – इंद्र, कार्तिकेय, प्रह्लाद आदि । व्युत्पत्ति प्रायः नहीं दी गई — हाँ अत्यन्त विशिष्ट यथा अतिथि, पुत्र, जाया, हृषीकेश आदि शब्दों में इसका उल्लेख किया गया है | तकनीकी शब्दों के अतिरिक्त अन्य आवश्यक शब्दों के विषय में दिया गया विवरण विद्यार्थियों के लिए उपयोगी सिद्ध होगा— उदा० मंडल, मार्लस, वेद, हंस | कुछ आवश्यक लोकोक्तियाँ 'न्याय' शब्द के अन्तर्गत दी गई हैं। प्रस्तुत कोश को और भी अधिक उपादेय बनाने की दृष्टि से अन्त में तीन परिशिष्ट भी दिये गये हैं। पहला परिशिष्ट 8 छन्दों के विषय में है—इसमें गण, मात्रा, तथा परिभाषा आदि सभी आवश्यक सामग्री रख दी गई है। इसके तैयार करने में मुख्यतः वृत्तरत्नाकर और छन्दोमंजरी का ही आश्रय लिया है। परन्तु उन छंदों को भी जो माघ, भारवि, दण्डी, अथवा भट्टि ने अतिरिक्त रूप से प्रयुक्त किया है, इसमें रख दिया गया है। दूसरे परिशिष्ट में कालिदास, भवभूति और बाण आदि संस्कृत के महाकवियों की कृति तथा जन्म विवरण आदि दिया गया है। इस विषय में मैंने मैक्समूलर की 'इंडिया' तथा वल्लभदेव की सुभाषितावली की भूमिका से जो कुछ ग्रहण किया है उसके लिए वे धन्यवाद के पात्र हैं। तीसरा परिशिष्ट भौगोलिक शब्दों का संग्रह है। इसमें मैंने कनिंगहम के ‘एन्शेंट ज्याग्राफी' से तथा इंग्लिश संस्कृत डिक्शनरी में उपसृष्ट श्री बोरूह के निबंध से बड़ी सहायता प्राप्त की है तदर्थ मैं हृदय से उनका आभार मानता हूँ | कोश के शब्दक्रम का ज्ञान आगे दिये गये "कोश के देखने के लिए आवश्यक निर्देश" से भली-भांति हो सकेगा। मैं केवल एक बात पर आपका ध्यान खींचना चाहता हूँ कि मैने इस कोश में सर्वत्र 'अनुस्वार' का प्रयोग किया है। व्याकरण की दृष्टि से चाहे यह प्रयोग सर्वथा सही न हो, तो भी छपाई की दृष्टि से सुविधाजनक है।और मुझे विश्वास है कि कोश की उपयोगिता पर इसका कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है। समाप्त करने से पूर्व मैं उन सब विविध कृतियों का कृतज्ञ हूँ जिनसे इसको तैयार करने में मुझे सहायता मिली। इसके लिए सबसे पहली रचना प्रोफ़ेसर तारानाथ तर्कवाचस्पति की 'वाचस्पत्य' है। इस कोश में दी गई सामग्री का अधिकांश उसी से लिया गया है, यद्यपि कई स्थानों पर संशोधन भी करना पड़ा है। वर्तमान संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरियों में जो शब्द, अर्थ और उद्धरंग उपलब्ध नहीं हैं वे इसी कोश से लिये गये हैं। दूसरा कोश “दी संस्कृत-इंग्लिश-डिक्शनरी" प्रो० मोनियर विलियम्स का है जिनका मैं बहुत ऋणी हूँ। इस कोश का मैंने पर्याप्त उपयोग किया है। अतः मैं इस सहायता का आभारी हूँ। अन्त में मैं 'जर्मन वर्टरबुश' के कर्ता डा० रॉथ और बॉथलिक को धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता। इनके कोश में अनेक उद्धरण और संदर्भ हैं परन्तु अधिकांश वैदिक साहित्य से लिये गये हैं। इसके विपरीत मैने अधिकांश उद्धरण अपने उस संग्रह से लिये हैं जो भवभूति, जगन्नाथ पंडित, राजशेखर, बाण, काव्य प्रकाश, शिशुपालवध, किरातार्जुनीय, नैपचचरित, शंकरभाष्य और वेणीसंहार आदि की सहायता से तैयार किया गया है। इसके अतिरिक्त उन ग्रन्थकर्ताओं और सम्पादकों का भी मैं कृतज्ञ हूँ जिनकी सहायता यदा-कदा प्राप्त करता रहा हूँ । अन्त में मुझे विश्वास है कि 'स्टुडेंट्स संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी' केवल उन विद्यार्थियों के लिए ही उपयोगी सिद्ध नहीं होगी जिनके लिए यह तैयार की गई है - बल्कि संस्कृत के सभी पाठक इससे लाभ उठा सकेंगे। कोई भी कृति चाहे वह कितनी ही सावधानी से क्यों न तैयार की गई हो - सर्वथा निर्दोष नहीं होती। मेरा यह कोश भी कोई अपवाद नहीं है, और विशेष रूप से उस अवस्था में जबकि इसे छापने की शीघ्रता की गई हो। अतः मैं उन व्यक्तियों से, जो इस कोश को अपनाकर मेरा सम्मान करें, यह निवेदन करता हूँ कि जहाँ कहीं इसमें वे कोई अशुद्धि देखें, अथवा इसके सुधारने के लिए कोई उत्तम सुनाव देना चाहें, तो मैं दूसरे संस्करण में उनको समावेश करने में प्रसन्नता अनुभव करूँगा । पूना, १५ फरवरी, १८९० । वी० एस० आप्टे कोश देखने के लिए आवश्यक निर्देश १. शब्दों को देवनागरी वर्णों में अकारादि क्रम से रक्खा गया है । २. पुल्लिंग शब्दों का कर्तृ कारक एकवचन रूप लिखा गया है, इसी प्रकार नपुंसक लिंग शब्दों का भी प्रथमा विभक्ति का एकवचनान्त रूप लिखा है। जो शब्द विभिन्न लिङ्गों में प्रयुक्त होता है, उसके आगे स्त्री०, या पुं० एवं नपुं० लिखकर दर्शाया गया है । विशेषण शब्दों का प्रातिपदिक रूप रखकर उसके आगे वि० लिख दिया गया है । ३. जो शब्द क्रियाविशेषण के रूप में प्रयुक्त होते हैं तथा विशेषण या संज्ञा से व्युत्पन्न होते हैं उन्हें उस संज्ञा या विशेषण के अन्तर्गत कोष्ठक के अन्दर रक्खा गया है जैसे 'पर' के अन्तर्गत परेण या परे अथवा 'समीप' के अन्तर्गत समीपतः या समीपे । ४. (क) शब्दों के केवल भिन्न-भिन्न अर्थों को पृथक् अंग्रेजी क्रमांक देकर दर्शाया गया है। सामान्य अर्थाभास को स्पष्ट करने के लिए एक से अधिक पर्याय रखे गये हैं । (ख) उद्धृत प्रमाणों के उल्लेख में देवनागरी के अंकों का प्रयोग किया गया है । ५. जहाँ तक हो सका है शब्दों को प्रयोगाधिक्य तथा महत्त्व की दृष्टि से क्रमबद्ध किया गया है । ६. प्रत्येक मूल शब्द की संक्षिप्त व्युत्पत्ति [ ] प्रकोष्ठक में दे दी गई है जिससे कि शब्द का यथार्थ ज्ञान हो सके । प्रत्यय और उपसर्ग की सामान्य जानकारी के लिए -- सामान्य प्रत्यय सूचि साथ संलग्न है । ७. ( क ) समस्त शब्दों को मूल शब्द के अन्तर्गत ही पड़ी रेखा ( = मूल शब्द ) के पश्चात् रक्खा गया है, जैसे 'अग्नि' के अन्तर्गत —होत्र, 'अग्निहोत्र प्रकट करता है । ( ख ) समस्त शब्दों में -- मूल शब्दों के पश्चात् उत्तरखंड — को मिलाने में सन्धि के नियमानुसार जो परिवर्तन होते हैं उन्हें पाठक को स्वयं जानने का अभ्यास होना चाहिये -- यथा 'पूर्व' के साथ 'अपर' को मिलाने से 'पूर्वापर'; 'अधस्' के आगे 'गतिः' को मिलाने से 'अधोगति' बनता है । कई स्थानों पर उन समस्त शब्दों को जो सरलता से न समझे जा सकें पूरा का पूरा कोष्ठक में लिख दिया गया है । (ग) जहाँ एक समस्त शब्द ही दूसरे समस्त शब्द के प्रथम खण्ड के रूप में प्रयुक्त हुआ है वहाँ उस पूर्वखण्ड को शीर्ष रेखा के साथ लगा कर दर्शाया गया है जैसे -- द्विज ( समस्त शब्द ) में 'इन्द्र' या 'राज' जोड़ना है तो लिखेंगे - इन्द्र, -- "राज, और इसे पढ़ेंगे 'द्विजेन्द्र' या 'द्विजराज' । (घ) सभी अलुक् समासयुक्त ( उदा० कुशेशय, मनसिज, हृदिस्पृश् आदि ) शब्द पृथक् रूप से यथास्थान रक्खे गये हैं। मूल शब्दों के साथ उन्हें नहीं जोड़ा गया । ८. कृदन्त और तद्धित प्रत्ययों से युक्त शब्दों को मूल शब्दों के साथ न रखकर पृथक् रूप से यथास्थान रक्खा गया है । फलतः 'कूलंकष' 'भयंकर' 'अन्नमय' 'प्रातस्तन' और 'हिमवत्' आदि शब्द 'कूल' और 'भय' आदि मूल शब्दों के अन्तर्गत नहीं मिलेंगे । ९. स्त्रीलिंग शब्दों को प्रायः पृथक् रूप से लिखा गया है, परन्तु अनेक स्थानों पर पुल्लिंग रूप के साथ ही स्त्रीलिंग रूप दे दिया गया है । १०. (क) धातुओं के आगे आ० ( आत्मनेपदी ), पर० ( परस्मैपदी ) तथा उभ० ( उभयपदी), के साथ गणद्योतक चिह्न भी लगा दिये गये हैं। (ख) प्रत्येक धातु का पद, गण, लकार ( ) कोष्ठ के अन्दर धातु के आगे रूप के साथ दे दिया गया है । (ग) धातु के लट् लकार का प्रथम पुरुष का एक वचमांत रूप ही लिखा गया है। (घ) धातुओं के साथ उनके उपसर्गयुक्त रूप अकारादिक्रम से धातु के अन्तर्गत ही दिखलाये गये हैं। (ङ) पद, वाच्य, विशेष अर्थ अथवा उपसर्ग के कारण धातुओं के परिवर्तित रूप ( ) कोष्ठकों में दिखलाये गये हैं । ११. धातुओं के तव्य, अनीय, और य प्रत्यययुक्त कृदन्त रूप प्रायः नहीं दिये गये। शत्रुन्त और शानजन्त विशेषण तथा ता, त्व या य प्रत्यय के लगाने से बने भाववाचक संज्ञा शब्दों को भी पृथक् रूप में नहीं दिया गया । ऐसे शब्दों के ज्ञान के लिए विद्यार्थी को व्याकरण का आश्रय लेना अपेक्षित है। जहां ऐसे शब्दों की रूपरचना या अर्थों में कोई विशेषता है उन्हें यथास्थान रख दिया गया है । 12. शब्दों से संबद्ध पौराणिक अन्तःकथाओं को शब्दार्थ के यथार्थ ज्ञान के लिए ( ) कोठकों में संक्षिप्त रूप से रक्खा गया है । १३. जो शब्द या संबद्ध पौराणिक उपास्थान मूल कोश में स्थान न पा सके उन्हें परिशिष्ट के रूप में कोश के अन्त में जोड़ दिया गया है । १४. संस्कृत साहित्य में प्रयुक्त छन्दों के ज्ञान के लिए, तथा अन्य भौगोलिक शब्द एवं साहित्यकारों की सामान्य जानकारी के लिए कोश के अन्त में परिशिष्ट जोड़ दिये गये हैं । विशेष वक्तव्य छात्रों की आवश्यकता का विशेष ध्यान रखकर इस कोष को और भी अधिक उपादेय बनाने के लिए प्राय: सभी मूल शब्दों के साथ उनकी संक्षिप्त व्युत्पत्ति दे दी गई है । शब्दों की रचना में उपसर्ग और प्रत्ययों का बड़ा महत्त्व है। इनकी पूरी जानकारी तो व्याकरण के पढ़ने से ही होगी। फिर भी इनका यहाँ दिग्दर्शन अत्यंत लाभदायक रहेगा । उपसर्ग—"उपसर्गेण धात्वर्थो बलादन्यत्र नीयते । प्रहाराहार संहारविहारपरिहारवत् ॥' उपसर्ग धातुओं के पूर्व लग कर उनके अर्थों में विभिन्नता ला देते हैं उपसर्ग उदाहरण अति अत्यधिकम् अघि अधिष्ठानम् अनु अनुगमनम् अप अपयशः अपि पिधानम् अभि अभिभाषणम् अव अवतरणम् आ आगमनम् उत उत्थाय, उद्गमनम् उप उपगमनम् दुस् दुस्तरणम् दुर् दुर्भाग्यम् नि निदेश: निस् निस्तारणम् निर् निर्धन परा पराजयः परि परिव्राजकः प्र प्रबल प्रति प्रतिक्रिया वि विज्ञानम् सु सुकर प्रत्यय—धातुओं के पश्चात् लगने वाले प्रत्यय कृत् प्रत्यय कहलाते हैं । शब्दों के पश्चात् लगने वाले प्रत्यय तद्धित कहलाते हैं । कृत्प्रत्यय -- उदाहरण अ, अङ -- पिपठिषा छिदा, अच्, अप् -- पचः, सरः , करः अण् -- कुम्भकारः अथुच् -- वेपथुः अनीयर् -- करणीय, दर्शनीय आलृच् -- स्पृहयालु इक् -- पचि: इत्नु -- स्तनयित्नु इष्णु च् -- रोचिष्णु इष्णु च् --रोचिष्णु उ -- जिगमिपुः उण् -- कारुः ऊक -- जागरूक क ( अ ) -- ज्ञः, दः, कि (इ) -- चक्रिः कुरच् -- विदुर क्त ( त, न ) -- हत, छिन्न क्तवत् ( तवत् ) -- उक्तवत् क्तिन् (ति) -- कृतिः क्त्वा ( त्वा ) -- पठित्वा कु (नु ) -- गृध्नु क्यच् -- पुत्रीयति क्यप् (य) -- कृत्य, क्रु (रु) -- भीरु क्वरप् (वर) -- नश्वर क्विप् -- स्पृक्, वाक् खच् (अ) -- स्तनंधयः घञ् (अ) -- त्यागः, पाकः घिनुण् ( इन् ) घुरच् (उर) ड (अ) डु (उ) (अ) ण (उ णिनि (इन् ) णमुल (अम्) ण्यत् ( य ) ण्वुल् ( अक) तृच् तुमुन् (तुम् ) नः यत् र ल्यप् (य) ल्युट् (अन) वनिप् वरच् :) वुञ् बुन् श ( अ ) शतृ (अत्) शानच् (आन या मान ) ष्ट्रन् (त्र) तद्धित तथा उणादि प्रत्यय (अक) अञ् (अ) अण् (अ) असुन् (अस्) अस्ताति ( अस्तात् ) आलच् आलुच् इञ् इतच् इमनिच् ( इमन् ) इलच् इष्ठन् इस् ईकक् (ईक ) ईयसुन् ( ईयस् ) ईरच् उरच् उलच् ऊड योगिन्, त्यागिन् भङ्ग र दूरगः, प्रभुः ग्राहः स्थायिन स्मारं स्मारं कार्य पाठक कर्तृ कतुंम् प्रश्न गेय, देय हिंस्र आदाय पटनं, करणम यज्वन् ईश्वर निन्दक क्रिया पचत् गयान, वर्तमान शस्त्रम्, अस्त्रम् उदाहरण औत्मः, शवः सरस्, तपम् अधस्तात् वाचाल दयाल दाशरथि, कुसुमित गरिमन्, फेनिल गरिष्ठ ज्योतिस् शक्तिीक, ऱघीयम् शरीर दन्तुर हर्षल कर्कन्थ् 12 एद्यमुच् (एद्यम ) क वस्न (ग्न ) खञ् (ईन) डीप (ई) चणम् छ (ईय) ञ (अ) व्य (य) ट्युल (तन ) ठक् । ट्ञ टन् डतमच ( अनम ) इतर ( अतर ) ढक् ( एप ) ण्य ( य ) तरप् (नर, तम) } तमप् तमिल (तम् ) त्यक् त्यप् (इक ) बलू थाल् दघ्नच् फक फञ् म मतृप् ( मन ) मतृप् (वत् ) मयड् मात्रच् य यन् र वलच् विनि } (आयन) प्कन् ( क ) प्यञ ( 4 ) मन् ( म ) ह् अन्येद्य राष्ट्रकम्, सुवर्णकम् मगी. अक्षर वण स्वदीय, भवदीय, पोवंशाः पाञ्चजन्यः सायतन धार्मिक, नै शिक बौद्धिक कतम कतर कौन्तेय, गाङ्गेय दन्य प्रियतर प्रियतम मुलतः पाश्चात्य अत्रत्य कुत्र, सर्वत्र सर्वथा जान्दघ्न आश्वलायन वात्स्यायन मध्यम श्रीमत् बलवत् जलमय ऊम्मात्र सभ्यः, गाग्यः मधुर मांसल रजस्वला यशस्विन् पथिक मौन्दर्य, नैपुण्य चिकीर्पा इह 5 अ० त्रक० अलु० स० अव्य० स० आ० दा० T० स० भ० कर्म० स० त० स० तृ० त० दे० द्व० स० द्वि० क० द्वि० स० द्वि० त० प० त० न० स० तुल० ना० धा० सम्प्र० सम० तु० प्रेर० ज्यो० " उ० अ० ए० व० सा० वि० वि० बी० ग० क्रि० वि० । वर्त० भूत प्रा० स० न० ब० न० त० पुं० नपुं० स्त्री० सक० पृषो० अव्यय अकर्मक अनुक् समास अव्ययीभाव समास आत्मने पद उदाहरणत: उपपद समास उभयपदी कर्मधारय समास तत्पुरुष समास तृतीया तत्पुरुष समास देखो द्वन्द्व समास द्विकर्मक द्विगु समास द्वितीया तत्पुरुष समास पष्ठी तत्पुरुष समास नञ समास तुलनात्मक नामधातु सम्प्रदान कारक समस्त पद तुलना करो प्रेरणार्थक ज्योतिष संकेत सूचि पर ज्या कम० वा० कर्तृ वा० व० व० उत्तमावस्था एक वचन सार्वनामिक (निर्देशक ) विशेषण विशेषण बीजगणित क्रिया विशेषण वर्तमानकाल भूत काल प्रादि समास नञ बहुव्रीहि समास नञ, तत्पुरुष समास पुंल्लिंग नपुंसक लिंग स्त्रीलिंग सकर्मक पृषोदरादित्वात् म० अ० अ० पु० म० पु० उ० पु० व० स० भवि० इच्छा० भू० क० कृ० सं० कृ० वर्त्त० कृ० विप० करण० कर्तृ कम ० ० आलं० वार्ति ० व० अने० पा० संबो० यड० संबं० त० श० अधिo उप० भ्वा० अदा० ज० स्वा० दि० तु० क्या० च० रु० तना० परस्मैपद ज्यामिति कर्म वाच्य कत्वाच्य वह वचन मध्यमावस्था अन्यपुरुष मध्यम पुरुष उत्तम पुरुष बहुचीहि समास भविष्यत्काल इच्छार्थक, सन्नन्त भूतकालिक कर्मणि कृदन्त (क्त ) संभाव्य कृदन्त ( तव्यत्) वर्तमानकालिक कृदन्त ( शत्रन्त या शानजन्त) विपरीतार्थक करणकारक कर्तृकारक कर्मकारक आलंकारिक वार्तिक वैदिक नाना पाठान्तर संबोधन यङलुङन्त संबंध तदेव शब्दश: अधिकरण कारक उपसर्ग भ्वादिगण अदादिगण जुहोत्यादिगण स्वादिगण दिवादिगण तुदादिगण दिगण चरादिगण रुधादिगण तनादिगण आप्टे संस्कृत-हिन्दी-कोश अ अ -- नागरी वर्णमाला का प्रथम अक्षर । अः [ अव् इ ] 1 विष्णु, पवित्र 'ओम्' को प्रकट करने वाली तीन ( अ उ म्) ध्वनियों में से पहली ध्वनि -- अकारो विष्णुरुद्दिष्ट उकारस्तु महेश्वरः । मकारस्तु स्मृतो ब्रह्मा प्रणवस्तु त्रयात्मकः ॥ 2 शिव ब्रह्मा, वायु , या वैश्वानर । (अव्य ) 1 लैटिन के इन ( in ) अंग्रेजी के इन ( in ) या अन (un ) तथा यूनानी के अ ( 3 ) या ( un ) के समान नकारात्मक अर्थ देने वाला उपसर्ग जो कि निषेधात्मक अव्यय नञ् के स्थान पर संज्ञाओं, विशेषणों एवं अव्ययों के (क्रियाओं के भी) पूर्व लगाया जाता है । यह 'अ' ही 'अऋणिन्' शब्द को छोड़कर शेष स्वरादि शब्दों में पूर्व 'अन्' बन जाता है । 'न' के सामान्यतया छः अर्थ गिनाये गये हैं :--(क) सादृश्य - समानता या सरूपता यथा 'अब्राह्मणः' -- ब्राह्मणः के समान (जनेऊ आदि पहने हुए) परन्तु ब्राह्मण न होकर, क्षत्रिय वैश्य आदि। (ख) अभाव - अनुपस्थिति, निषेध, अभाव, अविद्यमानता यथा "अज्ञानम्" ज्ञान का न होना, इसी प्रकार, अक्रोधः, अनंगः, अकंटकः, अघट:' आदि । (ग) भिन्नता - अन्तर या भेद यथा 'अपट:' कपड़ा नहीं, कपड़े से भिन्न अन्य कोई वस्तु । (घ) अल्पता लघुना न्यूनता, अल्पार्थवाची अव्यय के रूप में प्रयुक्त होता है - यथा 'अनुदरा' पतली कमर वाली ( कृशोदरी या तनुमध्यमा) । (च) अप्राशस्त्य - बुराई, अयोग्यता तथा लघुकरण का अर्थ प्रकट करना यथा अकालः , अनुपयुक्त समय ; 'अकार्यम्' न करने योग्य, अनुचित, अयोग्य या बुरा काम । (छ) विरोध विरोधी प्रतिक्रिया, वैपरीत्य यथा 'अनीतिः' नीतिविरुद्धता, अनैतिकता, 'असित' जो श्वेत न हो, काला । उपर्युक्त छः अर्थ निम्नांकित श्लोक में एकत्र संकलित हैंतत्सादृश्यमभावश्च तदन्यत्वं तदल्पता । अप्राशस्त्यं विरोधश्च नञर्थाः षट् प्रकीर्तिताः ॥ दे० 'न' भी । कृदन्त शब्दों के साथ इसका अर्थ सामान्यतः "नहीं" होता है यथा 'अदग्ध्वा' न जलाकर, 'अपश्यन्' न देखते हुए । इसी प्रकार 'असकृत्' एक बार नहीं । कभी-कभी 'अ' उत्तरपद के अर्थ को प्रभावित नहीं करता यथा 'अमूल्य', 'अनुत्तम', यथास्थान । 2 विस्मयादि द्योतक अव्यय – यथा ( क ) 'अ अवद्यम्' यहाँ दया ( आह. अरे ) (ख) 'अ पचसि त्वं जाल्म' यहाँ भर्त्सना, निंदा (धिक, छिः) अर्थ को प्रकट करता है । दे० 'अकरणि' 'अजीवनि' भी । (ग) संबोधन में भी प्रयुक्त होता है यथा 'अ अनन्त' (घ) इसका प्रयोग निषेधात्मक अव्यय के रूप में भी होता है । 3 भूतकाल के लकारों (लङ्, लुङ् और लृङ्) की रूपरचना के समय धातु के पूर्व आगम के रूप में जोड़ा जाता है यथा अगच्छत् , अगमत् , अगमिष्यत् में । अऋणिन् (वि० ) [ नास्ति ऋणं यस्य न० ब० ] ( यहाँ 'ऋ' को व्यंजन ध्वनि माना गया ) जो कर्जदार न हो, ऋणमुक्त ('अनृणिन्' शब्द भी इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है ।) अंश ( चुरा० उभ० अशंयति-ते) बांटना, वितरण करना, आपस में हिस्सा बांटना, 'अंशापयति' भी इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है । वि 1 बांटना 2 धोखा देना । अंशः [ अंश् + अच् ] 1 हिस्सा, भाग, टुकड़ा ; सकृदंशो निपतति - मनु० ९१४७ रघु० ८।१६:- अंशेन दर्शितानुकुलता का० १५९ अंशत: ; 2 संपत्ति में हिस्सा, दाय स्वतोंशतः - मनु० ८।४०८, ९।२०१; याज्ञ० २।११५ ; 3 भिन्न की संख्या, कभी-कभी भिन्न के लिए भी प्रयुक्त 4 अक्षांश या रेखांश की कोटि ५ कंधा (सामान्यतः 'कंधे' के अर्थ में, 'अंस' का प्रयोग होता है दे०) । सम० अंशः अंशावतार, हिस्से का हिस्सा; अंशि ( क्रि० वि०) हिस्सेदार; अवतरणम् अवतारः – पृथ्वी पर देवताओं के अंश को लेकर जन्म लेना, आंशिक अवतार, ॰तार इव धर्मस्य दश० १५३; महाभारत के आदिपर्व के ६४-६७ तक अध्याय ; भाज्, हर, हारिन् (वि०) उत्तराधिकारी, सहदायभागी पिण्डदोंशहरश्चैषां पूर्वाभावे पर: पर: याज्ञ० २।१३२-१३३ . -सवर्णनम् -- भिन्नों को एक समान हर में लाना ; - स्वरः मुख्य स्वर , मूलस्वर । अंशक: [ अंग् + ण्वुल्, स्त्रियां --अंशिका ] 1 हिस्सेदार, सहदायभागी, संबंधी 2 हिस्सा, खण्ड, भाग, -कम् सौर दिवस । अंशनम् [ अंश् + ल्युट् ] बांटने की क्रिया । (2) अंशयितृ (पुं० ) [ अंश् + णिच् + तृच् ] विभाजक, बांटने वाला । अंशल (वि० ) [ अंश लाति ला + क ] साझीदार, हिस्सा पाने का अधिकारी । 2 == अंसल दे० अंशिन् (वि०) (अंश् + इनि ) 1 हिस्सेदार, सहदायभागी, - (पुनर्विभागकरणे) सर्वे वा स्युः समांशिनः, याज्ञ० २।११४, 2 भागों वाला, साझीदार । अंशु: [ अंश् + कु ] 1 किरण, प्रकाशकिरण, चंड0, घर्म0 गरम किरणों वाला, सूर्य, सूर्याशुभिभिन्नमिवारविन्दम् - कु० ११३२, चमक, दमक 2 विन्दु या किनारा 3 एक छोटा या सूक्ष्म कण 4 धागे का छोर 5 पोशाक, सजावट, परिधान 6 गति । 'सम0 उदकम् ओस का पानी, -जालम् रश्मिपुंज या प्रभामण्डल, धर, - पतिः, - भृत् - बाणः, - भर्तृ, स्वामिन् –हस्तः -- सूर्य (किरणों को धारण करने वाला या उनका स्वामी), -पट्टम् एक प्रकार का रेशमी कपड़ा, माला प्रकाश की माला, प्रभामण्डल, मालिन् (पुं० ) सूयं । अंशुकम् [ अंशु + क अंशवः सूत्राणि विषया यस्य ] 1 कपड़ा, सामान्यतः पोशाक । सितांशुका - विक्रम ० ३।१२ -यत्रांशुकाक्षेपविलज्जितानाम्- कु० १।१४, श0 १।३२ः 2 महीन या सफ़ेद कपड़ा --मेघ० ६४, प्राय: रेशमी कपड़ा या मलमल 3 ऊपर ओढ़ा जाने वाला वस्त्र, लवादा, अधोवस्त्र भी, 4 पत्ता 5 प्रकाश की मंद लौ । अंशुमत् (वि०) [अंशु + मतुप् ] 1 प्रभायुक्त, चमकदार, -ज्योतिषां रविरंशुमान् भग० १०।२१ 2 नोकदार । --मान् (पुं० ) 1 सूर्य, वालखिल्यैरिवांशुमान् रघु० १५।१०; 2 सगर का पौत्र, दिलीप का पिता और असमंजस का पुत्र । अंशुमत्फला - केले का पौधा । अंशुल ( वि० ) [ अंशुं प्रभां प्रतिभां वा लाति-ला क] चमकदार, प्रभायुक्त --लः चाणक्य मुनि । अंस् (चु० पर० अंसयति- अंसापयति) दे० अंश् । अंसः [अंस् । अच्] 1 भाग, खंड दे० अंश, 2 कंधा, अंमफलक, कंधे की हड्डी । सम0 कूट: बैल या साँड का डिल्ल अथवा कुव्व, कंधों के बीच का उभार, --त्रम् 1 कंधों की रक्षा के लिए कवच 2 धनुष, फलक: रीढ़ का ऊपरी भाग --भार: कंधे पर रखा गया भार या जूआ, --भारिक, भारिन् ( वि० ) ( अंसे ) कंधे पर जुआ या भार ढोने वाला --विवर्तिन् (वि० ) कंधों की ओर मुड़ा हुआ, --मुखमंसविवति पक्ष्मलाक्ष्याः, -- श० ३।२४। अंसल (वि०) [अंस् + लच्] बलवान्, हृष्टपुष्ट, शक्तिशाली मज़बूत कंधों वाला, --युवा युगव्यायतवाहुरंमल: रघु ३।३४ । अंह् , ( भ्वा० आ० अंहते, अंहितु, अंहित) जाना, समीप जाना, प्रयाण करना आरम्भ करना प्रेर01 भेजना 2 चमकना 3 बोलना । अंहतिः ती (स्त्री०)अति] 1 भेट उपहार 2 व्याकुलता, कष्ट, विता, दुख, बीमारी ( वेद० ) । अंहस् (नपुं० ) - (अहसी आदि) (अम् असून हुकू न ] 1 पाप-सहसा सहनिमहसा विहन अलम् ५।१७ 2 व्याकुलता, कष्ट, निता । अंहिति ती (स्त्री०) (अह क्तिन् ग्रहादित्वात् इट् ] उपहार दान । सम० पः जड अंह्नि (अह किन् अंहति गच्छत्यनेन ) 1 पैर 2 पेड़ की जड़ ० अध्रि 3 चार की संख्या । (पैर) से पीने वाला, वृक्ष, स्कन्धः पैर के तलवे का ऊपरी हिस्सा । अक् (स्वा० पर० अकति, अकित) जाना, साप की तरह टेढा-मेढ़ा चलना । अकम् [न कम्--सुखम् । सुख का अभाव पीड़ा, विपति, पाप । अकच (वि० ) [न. व.] गंजा चः केतु (अवपतनशील शिरोबिंदु) । अकनिष्ठ (वि०) [न कनिष्ठ - न० त०] जो सबसे छोटा न हो (जैसे सबसे बड़ा, मंझला) बड़ा, श्रेष्ठ ष्ठ: गौतम बुद्ध । अकन्या । न त । जो कुमारी न हो, जो अब कुमारी न रही हो । से अकर (वि०) (न. ब.) 1 लला, अपाहिज 2 कर या चुंगी मुक्त 3 अक्रिय, निकम्मा, अकर्मण्य । अकरणम् । कृ भावे ल्यट् न त. ] अक्रिया, कार्य का अभाव अकरणात् मन्दकरणं श्रेयः तु० अंग्रेजी की कहावतें 'समथिंग इज बैटर दैन नथिंग' (Something is better than nothing ; ) बैटर लेट दैन नैवर, ( Better late than never) न होने से कुछ होना भला है ; कभी न होने से देर में होना अच्छा है। (स्त्री० ) [ नञ + कृ अनिः । असफलता, निराशा, अप्राप्ति, अधिकांशतः कोमने या शाप देने में प्रयुक्त तस्याकरणिरेवास्तु सिद्धा० भगवान् करे उसकी आशा पूरी न हो, उसे असफलता मिले । अकर्ण (वि० ) [ न. ब. । 1 जिसके कान न हों, बहरा 2 कर्णरहित र्ण साँप । अकरणिः अकर्तन (वि० ) [ नञ् । कृत् + ल्युट् न. ब. ] ठिंगना । अकर्मन् (वि० ) ( न. व. ) 1 निष्क्रिय, आलसी, निकम्मा 2 दुष्ट, पतित 3 (व्या०) अकर्मक र्म (नपुं० ) 1 कार्य का अभाव 2 अनुचित कार्य, दोष, पाप । सम० (वि० ) 1 जिसके पास काम न हो, खाली, निठल्ला 2 अपराधी, कृत् (वि०) कर्म से मक्त या अनुचित कार्य करनेवाला भोगः कर्मफल भोगने से मुक्ति का अनुभव । अन्वित